नदीम अंसारी
पंजाब की जट्ट राजनीति पर गहरी पकड़ रखने वाले सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह एक बार फिर नई सियासी इबारत गढऩे में जुटे हैं। दोबारा पंजाब कांग्रेस की कमान संभालने वाले कैप्टन ने शक्ति के प्रतीक हनुमान जी के शुभ दिन मंगलवार यानि 9 नवंबर को अपनी सियासी ताकत दिखा दी। पंजाब कांग्रेस के कैप्टन ने शाही अंदाज में गुरुनगरी अमृतसर पहुंचकर श्री दरबार साहिब में माथा टेककर शुक्राना अरदास की। सूबे के सत्ताधारी अकाली-भाजपा गठबंधन को पूरी सियासी धमक दिखाते हुए उन्होंने दो-दो हाथ करने के लिए भी ललकारा। राज्य की सत्ता खोने के बाद कैप्टन जैसी रहनुमाई से महरुम जो कांग्रेसी गुटबाजी के रोग से बेजान पड़े थे, महाराजा के ललकारे से उनमें भी जान आ गई।
वैसे तो पंजाब कांग्रेस के प्रधान बतौर कैप्टन की ताजपोशी रस्मी तौर पर 12 नवंबर को चंडीगढ़ में रखी गई। बेशक उसकी भी सियासी नजरिए से खासी अहमियत सूबे के राजनेताओं के लिए है। फिर भी उसकी तुलना में कैप्टन के प्रधान बनने के बाद उनके पहले अमृतसर आगमन को विशुद्ध राजनीतिक चश्मे से आंका गया। यहां एक जिक्र निहायत जरुरी है कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल पर उनके सहपाठी कैप्टन अमरिंदर ने कभी कांग्रेस का दामन थामा था। फिर ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान श्री दरबार साहिब में सैन्य कारवाई के खिलाफ मजहबी मुद्दा बना कैप्टन कांग्रेस छोड़ गए थे। सूबे में सियासत और मजहब के बीच गहरा नाता होने की वजह से ही एक बड़े तबके ने तब कैप्टन को हाथो हाथ लिया। तब अकालियों ने भी सुनहरा मौका जान उनको अपनी गोद में बिठा लिया। मगर फौजी अफसर रहे कैप्टन अक्खड़ मिजाज होने के साथ ही शाही अंदाज भी रखते हैं। लिहाजा अकालियों की हावी होने वाली फितरत उन्हें रास नहीं आई और कैप्टन ने उनकी पार्टी से भी पल्ला झाड़ लिया। फौजी अंदाज में दुश्मन को सबक सिखाने के कायल कैप्टन ने एक बार फिर मजहबी दांव चला। उन्होंने पंथक राजनीति करने वाले अकालियों के खिलाफ वैसी ही एक पार्टी खड़ी कर दी। कैप्टन और अकालियों के बीच असली सियासी अदावत यहीं से शुरु हुई।
बहरहाल कैप्टन की पंथक पार्टी से अकालियों को कितना सियासी नुकसान हुआ, यह दीगर पहलू है। असल बात उनका यह मजहबी दांव कांग्रेस को रास आया और पंथक पार्टी वाले कैप्टन को एक बार फिर कांग्रेसियों ने मना कर च्गांधीवादीज् बना लिया। फिर तो पूरे रंग में आए कैप्टन ने ताल ठोककर अकालियों को ललकारा और पंथक राजनीति पर कब्जे के लिए खूब सियासी दांव चले। पंजाब कांग्रेस के प्रधान, फिर राज्य के मुख्यमंत्री और बाद के राजनीतिक संकटकाल में भी वह धर्म की राजनीति के मुद्दे पर अकालियों को लगातार चुनौती देते रहे। सिख समुदाय के लिए सबसे महत्वपूर्ण एसजीपीसी चुनाव सामने हैं। एसजीपीसी यानि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी पर अकालियों का कब्जा है। इसका सीधा असर विधानसभा और लोकसभा चुनाव के दौरान भी राज्य में देखने को मिलता है। इससे बाखूबी वाकिफ कैप्टन फिर एसजीपीसी चुनाव में लगातार दखल देने को प्रयासरत हैं। भले ही पार्टी हाईकमान के तेवर देख बाकी कांग्रेसी इस मुद्दे पर गोलमोल स्टैंड ले गए। अब कैप्टन का अमृतसर जाकर अपनी सियासी धमक दिखाना जितना अहम माना जा रहा है, उससे कई ज्यादा श्री दरबार साहिब में उनकी हाजिरी पंथक सियासत को हिलाए हुए है। जानकारों की मानें तो अंदरखाने कैप्टन दूसरे मोर्चे पर दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के प्रधान सरना और हरियाणा के पंथक नेता झींडा जैसों के जरिए भी अकालियों को मजहबी मुद्दे पर लगातार परेशान करा रहे हैं।
एक दिलचस्प पहलू भाजपा कोटे से अमृतसर के सांसद नवजोत सिंह सिद्धू वाक कला के बाजीगर कहलाते हैं। इसीलिए भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए का घटक शिरोमणि अकाली दल (बादल) भी उनको अपना स्टार प्रचारक मानता है। मगर पिछले लोस चुनाव में पंजाब के लिए कांग्रेस के स्टार प्रचारक रहे कैप्टन अब अमृतसर पहुंचे तो सिद्धू सरीखों की भी आवाज नहीं निकली। इससे साफ राजनीतिक संदेश गया कि कांग्रेस के पास कैप्टन ऐसी दोधारी तलवार हैं, जो अकालियों के साथ भाजपा पर भी सियासी वार करने में माहिर हैं। वैसे भी सियासी खेल में माहिर कैप्टन वक्त और माहौल के मुताबिक दांव चलते हैं। मोटे तौर पर माझा, मालवा और दोआबा यानि तीन हिस्सों में बंटे पंजाब के सबसे मुख्य केंद्र अमृतसर पहुंचकर कैप्टन ने जो अपने सियासी पत्ते खोले, उसके पीछे दूरगामी योजना मानी गई। एयरपोर्ट से महज 14 किमी दूर श्री दरबार साहिब तक पहुंचने में उनको तकरीबन चार घंटे लग गए। वजह साफ थी, हजारों कांग्रेसी वर्करों ने सैंकड़ो जगह उनका शानदार स्वागत किया। वे बाकायदा च्अपने महाराजाज् को शाही अंदाज में ही हाथी, घोड़े और ऊंट के भारी लाव-लशकर के साथ लेकर चले। बस सही मौका देख जोश में आए कैप्टन ने च्बादलों से तो मैं निपट लूंगाज् कहते हुए विरोधियों को चुनौती देने के साथ पार्टी वर्करों का हौंसला भी बढ़ाया।
यहां काबिलेजिक्र है कि फिलवक्त तमाम तरह की सियासी मुसीबतों में फंसे अकाली अब कैप्टन को लेकर भी खासे चिंतित हैं। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की अगुवाई वाली पार्टी के मुखिया अब उनके बेटे सुखबीर बादल हैं। उपमुख्यमंत्री सुखबीर भी कमोबेश कैप्टन की तरह धमक दिखाने के चक्कर में पार्टी के तमाम वरिष्ठ और कर्मठ नेताओं-वर्करों को नाराज कर चुके हैं। उसी का नतीजा है कि मुख्यमंत्री बादल के सगे भतीजे मनप्रीत बादल ने बगावत का झंडा बुलंद किया और वित्तमंत्री पद से हाथ धो बैठे। आजकल विभीषण बने घूम रहे मनप्रीत शिरोमणि अकाली दल रुपी लंका के दहन का मंसूबा पाले हैं। दूसरी तरफ कभी कैप्टन के नजदीकी रहे विधानसभा के तत्कालीन डिप्टी स्पीकर बीर दविंदर सिंह अकालियों की गोद में जा बैठे थे, वे भी बागी हो गए। ऐसे में शिअद को बादलों की पार्टी बताने वाले बागियों और विरोधियों के आरोप दमदार लगने लगे हैं। रही बात सत्ता के साझीदारों की तो अकालियों के भाजपा नेताओं से भी बहुत मधुर रिश्ते नहीं हैं। सियासत के मंझे खिलाड़ी रहे मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल पहले ही हालात को भांप चुके थे। लिहाजा उन्होंने निजी तौर पर कैप्टन और यूपीए चेयरपरसन सोनिया गांधी के खिलाफ दर्ज कराए मानहानि के मुकदमें तक वापिस ले लिए। साथ ही विधानसभा में ऐलानिया वादा किया कि वह बदले की सियासत के कायल नहीं हैं।
इस सबके बावजूद कैप्टन ने बादल के जज्बाती दांव में भी सियासत परखते हुए साफ ऐलान कर डाला कि उन्हें रहम की भीख नहीं चाहिए। अपने खिलाफ चर्चित सिटी सैंटर घोटाले जैसे मामले वह वकीलों के जरिए निपट लेंगे और उन्हें अदालत से इंसाफ की पूरी उम्मीद है। लगे हाथों कैप्टन ने पहले राज्य सरकार से हजारों पार्टी वर्करों पर दर्ज मुकदमें वापिस लेने की शर्त रख असली दांव चलते हुए तमाम कांग्रेसियों का दिल भी जीत लिया। आम अकालियों की नजर में भी उनकी पार्टी के झंडाबरदार बादल पिता-पुत्र का रवैया लचीला और हताश करने वाला है। जबकि गुटबाजी और नेृत्तवहीनता से लंबे समय निराश रहे आम कांग्रेसियों की निगाह में कैप्टन जुझारू नेता हैं। जो अपनी विधानसभा सदस्यता खोने के मामले में भी कानूनी लड़ाई लड़कर जीते तो दूसरी तरफ उन्होंने अपनी पार्टी में ही विरोधियों को शिकस्त दी। अब किसानों की समस्याएं उठाकर वह अकालियों के असली वोट-बैंक में सेंध लगा रहे हैं। दूसरी ओर आर्थिक मुद्दे पर राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा कर भाजपा के शहरी वोट-बैंक को भी खींचने में लगे हैं। रही बात राजनीति में धर्म के घालमेल की तो इस मामले में भी कैप्टन अकालियों को उन्हीं के हथियार से मारने का रास्ता तैयार कर रहे हैं। लब्बोलुआब, कांग्रेसी तो क्या दूसरी पार्टियों के नेता और हिमायती भी इस बात के कायल हैं कि कैप्टन का अंदाज जुदा है। पंजाब में उनकी तरह अकालियों से निपटने की कुव्वत न तो पूर्व मुख्यमंत्री राजिंदर कौर भट्ठल में है और न ही पंजाब कांग्रेस के पूर्व प्रधान मोहिंदर सिंह केपी व शमशेर सिंह दूलों सरीखे नेताओं में। रही बात पूर्व सांसद जगमीत सिंह बराड़ की तो उनके जैसे बुद्धिजीवी नेता कांग्रेस की राष्ट्रीय कमेटी के लिए ही मुफीद हैं।
जोश में दब गई गुटबाजी
पंजाब में कांग्रेसियो की गुटबाजी भी जगजाहिर है, लेकिन पार्टी के प्रदेश प्रधान कैप्टन अमरिंदर सिंह इस पर पर्दा डालने के भी माहिर हैं। वह अमृतसर पहुंचे तो जाहिर तौर पर वर्करों में जोश आया और उसी रेलमपेल में गुटबाजी के नजारे भी दब गए। बेशक ऐसे नजारे निहायत संजीदा थे, मगर सियासी रिवायत के मुताबिक जनशक्ति हमेशा विरोध-रोष पर भारी पड़ती है। जब अमृतसर में कैप्टन का काफिला श्री दरबार साहिब के लिए रवाना हुआ तो उनके शानदार सजे वाहन पर चढऩे के लिए वरिष्ठ कांग्रेसियों तक में मारपीट हो गई। पूर्व सांसद राणा गुरजीत सिंह ने तैश में आकर चार बार विधायक रहे ओपी सोनी को मारने के लिए हाथ तक उठा दिया। यह सब देख रहे कैप्टन ने इसे भी खूबसूरती से नया मोड़ देते हुए कांग्रेस की ताकत करार दिया। यहां याद दिला दें कि जब कैप्टन पिछली बार पंजाब कांग्रेस के प्रधान थे तो विधानसभा चुनाव से पहले लुधियाना में उन्होंने जोरदार रैली की थी। जिसमें वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हरनामदास जौहर और गुरचरण सिंह गालिब के बीच मंच पर ही जुतमपैजार हो गई थी। तब भी कैप्टन ने इसे पार्टी की ताकत का नतीजा बताते हुए कमजोरी पर पर्दा डाला था। उसके बाद सत्ता पलटी और कांग्रेस की सरकार आने पर कैप्टन मुख्यमंत्री बने। लिहाजा सारी गलतियों पर पर्दा पर गया।
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