चौधरी देवीलाल अक्सर कहा करते थे कि गांव व ग्रामीण आंचल में बसने वाले विशेषकर किसान, मजदूर व खेती पर निर्भर लोगों को खुशहाल बना दो तो देश अपने आप खुशहाल हो जाएगा। उनका कहना था कि अगर किसान, मजदूर व कमेरे वर्ग के पास खुशहाली आएगी तो वह शहर में जाकर ज्यादा सामान खरीदेगा जिससे छोटा-बड़ा हर दुकानदार खुशहाल हो जाएगा और दुकानदार के खुशहाल होते ही उद्योग धन्धे भी सफल होने लगेंगे। आज उनकी कही हुई बातें एकदम स्टीक व जीवन का निचोड़ नजर आती हैं। चौधरी देवीलाल की आत्मा देहात में रची-बसी हुई थी इसलिए वो अक्सर कहा करते थे कि भारत गांवों का देश है देश की आत्मा का निवास तो देहात में है। जब तक गाँवों व छोटे कस्बों में रहने वाली जनता को ऊपर नहीं उठाएंगे उनकी आर्थिक और सामाजिक हालात में बदलाव नहीं लाएंगे, तब तक देश व प्रदेश में खुशहाली नहीं आएगी। जब तक गाँवों व छोटे कस्बों में सारी बुनियादी सुविधाएं नहीं जुटाई जाएंगी जिनकी एक व्यक्ति को आवश्यकता है तब तक सही मायनों में न तो भारत आर्थिक रूप से सम्पन्न हो सकता है और न ही देशवासी सही मायनों में खुशहाल हो सकते हैं। इसलिए वे अक्सर कहा करते थे कि-
हर खेत को पानी, हर हाथ को काम।
हर तन को कपड़ा, हर सर को मकान।
हर पेट को रोटी, बाकी सब बात खोटी।
चौ. देवीलाल ने 25 सितम्बर, 1914 को एक समृद्ध जमींदार परिवार में जन्म लिया और पले व बढ़़े, लेकिन वे उन बुराइयों और कमजोरियों से बचे रहे जो इस प्रकार के माहौल में पलने वालों में साधारणतया आ जाती है। इसका कारण बना कुछ उनका स्वभाव और कुछ सामयिक परिस्थितियां, जिसे व्यक्ति विशेष की विशिष्टता कहा जा सकता है। जब वे छोटी अवस्था में थे तो उनकी मां का देहांत हो गया। परिणामस्वरूप बचपन में ही दादा जी अंतर्मुखी होते चले गए। उन्हें अपने निर्णय खुद ही लेने के लिए अपने आपको तैयार करना पड़ा। गलत-सही जो भी निर्णय उन्हें करने पड़ते थे वह अपने मन से करते थे या फिर गांव तथा स्कूल के उन साथियों की देखादेखी जो उन्हें अपने दिल के करीब लगते थे। इसी के चलते वे छोटे किसानों, मुजारों और निर्धन परिवारों से आने वाले संगी-साथियों के करीब आते गए। बड़े जमींदारों के बच्चे अच्छे कपड़े-लत्ते और जूते पहन कर स्कूल जाया करते थे। साधारण परिवारों के बच्चे आमतौर पर बिना जूतों के, नंगे पैर ही स्कूल जाते थे। मेरे दादा जी भी अपने जूते स्कूल के रास्ते किसी झाड़ी या पत्थर के नीचे छिपा कर नंगे पैर स्कूल जाते थे। इस प्रकार उनका मेलजोल जमींदार परिवारों के बच्चों की बजाय निर्धन किसानों और मुजारों-काश्तकारों के बच्चों के साथ बढ़ता चला गया। यही झुकाव आगे चलकर देवीलाल को बड़े किसानों और जमींदारों के विरुद्ध मुजारों और किसानों के हकों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा का सबब बना। पांचवी कक्षा के बाद वे डबवाली, फिरोजपुर और मोगा के स्कूलों में पढ़े। छात्रावासों के स्वावलंबी जीवन ने उनमें आत्मविश्वास और साथ ही जुझारूपन भी भर दिया था। आधुनिक खेलकूद की सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी लेकिन अखाड़े में कुश्ती लडऩे का शौक लग गया। इस शौक के लिए उन्हें कभी-कभी छात्रावास का अनुशासन भी भंग करना पड़ता था और उसकी सजा के रूप में जुर्माना आदि भी भरना पड़ता था। छात्रावासों में उस समय सबसे बड़ी पाबंदी थी क्रांतिकारी साहित्य पढऩे की और देवीलाल को उसी का चस्का लग गया। वे अक्सर बताया करते थे कि 'छात्रावास में रहते हुए देशभक्ति का साहित्य पढऩा वर्जित था, देशभक्तों के चरित्र पर बहस करने की सख्त मनाही थी। राष्ट्र-प्रेमी संस्थाओं की सदस्यता लेना और साम्राज्यवाद विरोधी सार्वजनिक सभाओं में भाग लेना सर्वथा निषिद्ध था।Ó दादा जी जब छात्रावास में विभिन्न विचारों के अध्यापकों और विद्यार्थियों के सम्पर्क में आए तो उनका झुकाव अंग्रेज सरकार के खिलाफ छपने वाले साहित्य की ओर बढ़ा। राष्ट्रपे्रम की खबरों वाले अखबारों को छात्रावास में छिप-छिपकर पढ़ा जाने लगा। एक दिन पकड़े गए और छात्रावास से निकाल दिए गए। उनके साथ उनके दो-तीन और साथी भी निकाले गए। घर वालों को पता चलता तो और मुसीबत खड़ी होती इसलिए साथियों के साथ कमरा किराए पर लेकर वहीं बाहर रहने लगे और पढ़ाई जारी रखी।
वे मोगा के स्कूल में दसवीं कक्षा में थे कि आजादी की जंग ने नया मोड़ ले लिया। सन् 1929 में लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें पूर्ण आजादी की मांग की गई। दादा जी अपने कुछ साथियों के साथ स्वयंसेवक के रूप में शामिल हुए। सन् 1926 में ही डबवाली के स्कूल में पढ़ते हुए वे 'शेरे पंजाबÓ लाला लाजपत राय के प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। नवंबर, 1928 में जब लाला लाजपत राय की पुलिस की लाठियों के प्रहार के कारण मृत्यु हो गई तो वे भगत सिंह और उनके साथियों की क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर आकर्षित होने लगे। मोगा के स्कूल में पढ़ते हुए एक दिन उन्हें पता चला कि पंडित मदन मोहन मालवीय लुधियाना आ रहे हैं। वे अपने साथियों के साथ उनका भाषण सुनने लुधियाना पहुंच गए। वहां उन्हें पता चला कि मालवीय जी का भाषण अमृतसर में होगा तो वे अमृतसर पहुंच गए। लेकिन उनके वहां पहुंचने से पहले ही मालवीय जी का भाषण हो चुका था और काजी अब्दुल रहमान का भाषण हो रहा था। भाषण समाप्त होते ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। लेकिन देवीलाल और उनके साथियों का जोश उस देशभक्ति पूर्ण माहौल को देखकर प्रबल हो गया। वे कांग्रेस के स्वयंसेवक के रूप में भर्ती होकर स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने लगे और देश की आजादी के लिए अनेक बार जेल गए।
दादा जी देश के उप-प्रधानमन्त्री और हरियाणा के मुख्यमन्त्री सहित अनेक प्रमुख पदों पर रहे लेकिन उनके मन में कभी किसी बड़े से बड़े पद का भी मोह नहीं था। 1989 में देवीलाल को सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री पद के लिए चुन लिया गया और उन्होंने यह पद वीपी सिंह को सौंपकर खुद उप-प्रधानमंत्री बनना स्वीकार किया जिसके चलते चौधरी देवीलाल की छवि आज भी लाखों-करोड़ों लोगों के मन में बसी हुई है। हरियाणा के ताऊ सारे भारत के ताऊ बन गए हैं। उनकी जीवन-यात्रा निरंतर संघर्ष और विद्रोह की कथा रही है जो आने वाली पीढिय़ों के लिए लंबे समय तक प्रेरणा-स्त्रोत बनी रहेगी। भारतीय राजनीति को कल्याण का स्वरूप प्रदान कर ग्रामीण जन चेतना के संवाहक के रूप में मेरे दादा चौ. देवी लाल ने ग्रामीण समाज विशेषकर किसान, मजदूर, गरीब व दबे-कुचले लोगों में जन-चेतना जगाकर उसको अपने अधिकारों व उसकी रक्षा के प्रति सचेत करते हुए अधिकार पाने के लिए संघर्ष का रास्ता दिखाया।
आज उनकी नौवीं पुण्य तिथि है और वे चाहे शरीरिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके ऊंचे आदर्श व जीवनमूल्य हमारे लिए पथ प्रदर्शक के रूप में हमें जीवन की सही राह दिखाने का काम कर रहे हैं। उन्होंने मुझे ही नहीं अपितु भारत-भर के हजारों नेताओं को उंगली पकड़कर राजनीति में चलना सिखाया। उनकी आत्मा आम लोगों, ग्रामीण समाज व छोटे कस्बों में रहने वाले कमरे वर्ग में बसती है। उनका जीवन दर्शन उनकी सोच एवं नीतियों के माध्यम से सर्वहारा वर्ग का उत्थान नितान्त आवश्यक है। महात्मा गांधी, सर छोटू राम, चौ. देवीलाल, चौ. चरण सिंह सरीखे नेताओं ने अपनी राजनीति के सफर का रास्ता गांवों के माध्यम से तय किया। इसलिए वो कहा करते थे- 'भारत की सुख एवं समृद्धि का रास्ता गांवों से होकर गुजरता है।इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि आजादी के 63 वर्ष बाद भी देश के गांवों व छोटे कस्बों में बिजली, पानी, स्वास्थ्य व स्कूलों की सुविधाएं आशानुरूप नहीं है। जब तक गांवों व छोटे कस्बों का विकास नहीं होगा, भारत के विकास की परिकल्पना नहीं की जा सकती। उनकी पुण्य तिथि पर उनके दिखाए गए रास्ते पर चलकर ही हम जगत् 'ताऊÓ चौ. देवीलाल को सच्ची श्रद्धांजति दे सकते हैं।
- अजय सिंह चौटाला
हर खेत को पानी, हर हाथ को काम।
हर तन को कपड़ा, हर सर को मकान।
हर पेट को रोटी, बाकी सब बात खोटी।
चौ. देवीलाल ने 25 सितम्बर, 1914 को एक समृद्ध जमींदार परिवार में जन्म लिया और पले व बढ़़े, लेकिन वे उन बुराइयों और कमजोरियों से बचे रहे जो इस प्रकार के माहौल में पलने वालों में साधारणतया आ जाती है। इसका कारण बना कुछ उनका स्वभाव और कुछ सामयिक परिस्थितियां, जिसे व्यक्ति विशेष की विशिष्टता कहा जा सकता है। जब वे छोटी अवस्था में थे तो उनकी मां का देहांत हो गया। परिणामस्वरूप बचपन में ही दादा जी अंतर्मुखी होते चले गए। उन्हें अपने निर्णय खुद ही लेने के लिए अपने आपको तैयार करना पड़ा। गलत-सही जो भी निर्णय उन्हें करने पड़ते थे वह अपने मन से करते थे या फिर गांव तथा स्कूल के उन साथियों की देखादेखी जो उन्हें अपने दिल के करीब लगते थे। इसी के चलते वे छोटे किसानों, मुजारों और निर्धन परिवारों से आने वाले संगी-साथियों के करीब आते गए। बड़े जमींदारों के बच्चे अच्छे कपड़े-लत्ते और जूते पहन कर स्कूल जाया करते थे। साधारण परिवारों के बच्चे आमतौर पर बिना जूतों के, नंगे पैर ही स्कूल जाते थे। मेरे दादा जी भी अपने जूते स्कूल के रास्ते किसी झाड़ी या पत्थर के नीचे छिपा कर नंगे पैर स्कूल जाते थे। इस प्रकार उनका मेलजोल जमींदार परिवारों के बच्चों की बजाय निर्धन किसानों और मुजारों-काश्तकारों के बच्चों के साथ बढ़ता चला गया। यही झुकाव आगे चलकर देवीलाल को बड़े किसानों और जमींदारों के विरुद्ध मुजारों और किसानों के हकों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा का सबब बना। पांचवी कक्षा के बाद वे डबवाली, फिरोजपुर और मोगा के स्कूलों में पढ़े। छात्रावासों के स्वावलंबी जीवन ने उनमें आत्मविश्वास और साथ ही जुझारूपन भी भर दिया था। आधुनिक खेलकूद की सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी लेकिन अखाड़े में कुश्ती लडऩे का शौक लग गया। इस शौक के लिए उन्हें कभी-कभी छात्रावास का अनुशासन भी भंग करना पड़ता था और उसकी सजा के रूप में जुर्माना आदि भी भरना पड़ता था। छात्रावासों में उस समय सबसे बड़ी पाबंदी थी क्रांतिकारी साहित्य पढऩे की और देवीलाल को उसी का चस्का लग गया। वे अक्सर बताया करते थे कि 'छात्रावास में रहते हुए देशभक्ति का साहित्य पढऩा वर्जित था, देशभक्तों के चरित्र पर बहस करने की सख्त मनाही थी। राष्ट्र-प्रेमी संस्थाओं की सदस्यता लेना और साम्राज्यवाद विरोधी सार्वजनिक सभाओं में भाग लेना सर्वथा निषिद्ध था।Ó दादा जी जब छात्रावास में विभिन्न विचारों के अध्यापकों और विद्यार्थियों के सम्पर्क में आए तो उनका झुकाव अंग्रेज सरकार के खिलाफ छपने वाले साहित्य की ओर बढ़ा। राष्ट्रपे्रम की खबरों वाले अखबारों को छात्रावास में छिप-छिपकर पढ़ा जाने लगा। एक दिन पकड़े गए और छात्रावास से निकाल दिए गए। उनके साथ उनके दो-तीन और साथी भी निकाले गए। घर वालों को पता चलता तो और मुसीबत खड़ी होती इसलिए साथियों के साथ कमरा किराए पर लेकर वहीं बाहर रहने लगे और पढ़ाई जारी रखी।
वे मोगा के स्कूल में दसवीं कक्षा में थे कि आजादी की जंग ने नया मोड़ ले लिया। सन् 1929 में लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें पूर्ण आजादी की मांग की गई। दादा जी अपने कुछ साथियों के साथ स्वयंसेवक के रूप में शामिल हुए। सन् 1926 में ही डबवाली के स्कूल में पढ़ते हुए वे 'शेरे पंजाबÓ लाला लाजपत राय के प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। नवंबर, 1928 में जब लाला लाजपत राय की पुलिस की लाठियों के प्रहार के कारण मृत्यु हो गई तो वे भगत सिंह और उनके साथियों की क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर आकर्षित होने लगे। मोगा के स्कूल में पढ़ते हुए एक दिन उन्हें पता चला कि पंडित मदन मोहन मालवीय लुधियाना आ रहे हैं। वे अपने साथियों के साथ उनका भाषण सुनने लुधियाना पहुंच गए। वहां उन्हें पता चला कि मालवीय जी का भाषण अमृतसर में होगा तो वे अमृतसर पहुंच गए। लेकिन उनके वहां पहुंचने से पहले ही मालवीय जी का भाषण हो चुका था और काजी अब्दुल रहमान का भाषण हो रहा था। भाषण समाप्त होते ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। लेकिन देवीलाल और उनके साथियों का जोश उस देशभक्ति पूर्ण माहौल को देखकर प्रबल हो गया। वे कांग्रेस के स्वयंसेवक के रूप में भर्ती होकर स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने लगे और देश की आजादी के लिए अनेक बार जेल गए।
दादा जी देश के उप-प्रधानमन्त्री और हरियाणा के मुख्यमन्त्री सहित अनेक प्रमुख पदों पर रहे लेकिन उनके मन में कभी किसी बड़े से बड़े पद का भी मोह नहीं था। 1989 में देवीलाल को सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री पद के लिए चुन लिया गया और उन्होंने यह पद वीपी सिंह को सौंपकर खुद उप-प्रधानमंत्री बनना स्वीकार किया जिसके चलते चौधरी देवीलाल की छवि आज भी लाखों-करोड़ों लोगों के मन में बसी हुई है। हरियाणा के ताऊ सारे भारत के ताऊ बन गए हैं। उनकी जीवन-यात्रा निरंतर संघर्ष और विद्रोह की कथा रही है जो आने वाली पीढिय़ों के लिए लंबे समय तक प्रेरणा-स्त्रोत बनी रहेगी। भारतीय राजनीति को कल्याण का स्वरूप प्रदान कर ग्रामीण जन चेतना के संवाहक के रूप में मेरे दादा चौ. देवी लाल ने ग्रामीण समाज विशेषकर किसान, मजदूर, गरीब व दबे-कुचले लोगों में जन-चेतना जगाकर उसको अपने अधिकारों व उसकी रक्षा के प्रति सचेत करते हुए अधिकार पाने के लिए संघर्ष का रास्ता दिखाया।
आज उनकी नौवीं पुण्य तिथि है और वे चाहे शरीरिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके ऊंचे आदर्श व जीवनमूल्य हमारे लिए पथ प्रदर्शक के रूप में हमें जीवन की सही राह दिखाने का काम कर रहे हैं। उन्होंने मुझे ही नहीं अपितु भारत-भर के हजारों नेताओं को उंगली पकड़कर राजनीति में चलना सिखाया। उनकी आत्मा आम लोगों, ग्रामीण समाज व छोटे कस्बों में रहने वाले कमरे वर्ग में बसती है। उनका जीवन दर्शन उनकी सोच एवं नीतियों के माध्यम से सर्वहारा वर्ग का उत्थान नितान्त आवश्यक है। महात्मा गांधी, सर छोटू राम, चौ. देवीलाल, चौ. चरण सिंह सरीखे नेताओं ने अपनी राजनीति के सफर का रास्ता गांवों के माध्यम से तय किया। इसलिए वो कहा करते थे- 'भारत की सुख एवं समृद्धि का रास्ता गांवों से होकर गुजरता है।इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि आजादी के 63 वर्ष बाद भी देश के गांवों व छोटे कस्बों में बिजली, पानी, स्वास्थ्य व स्कूलों की सुविधाएं आशानुरूप नहीं है। जब तक गांवों व छोटे कस्बों का विकास नहीं होगा, भारत के विकास की परिकल्पना नहीं की जा सकती। उनकी पुण्य तिथि पर उनके दिखाए गए रास्ते पर चलकर ही हम जगत् 'ताऊÓ चौ. देवीलाल को सच्ची श्रद्धांजति दे सकते हैं।
- अजय सिंह चौटाला