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राजकमल कटारिया

Raj Kamal Kataria

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Sunday, 5 September 2010

हर पेट को रोटी, बाकी सब बात खोटी-चौधरी देवीलाल

चौधरी देवीलाल अक्सर कहा करते थे कि गांव व ग्रामीण आंचल में बसने वाले विशेषकर किसान, मजदूर व खेती पर निर्भर लोगों को खुशहाल बना दो तो देश अपने आप खुशहाल हो जाएगा। उनका कहना था कि अगर किसान, मजदूर व कमेरे वर्ग के पास खुशहाली आएगी तो वह शहर में जाकर ज्यादा सामान खरीदेगा जिससे छोटा-बड़ा  हर दुकानदार खुशहाल हो जाएगा और दुकानदार के खुशहाल होते ही उद्योग धन्धे भी सफल होने लगेंगे। आज उनकी कही हुई बातें एकदम स्टीक व जीवन का निचोड़ नजर आती हैं।  चौधरी देवीलाल की आत्मा देहात में रची-बसी हुई थी इसलिए वो अक्सर कहा करते थे कि भारत गांवों का देश है देश की आत्मा का निवास तो देहात में है। जब तक गाँवों व छोटे कस्बों में रहने वाली जनता को ऊपर नहीं उठाएंगे उनकी आर्थिक और सामाजिक हालात में बदलाव नहीं लाएंगे, तब तक देश व प्रदेश में खुशहाली नहीं आएगी। जब तक गाँवों व छोटे कस्बों में सारी बुनियादी सुविधाएं नहीं जुटाई जाएंगी जिनकी एक व्यक्ति को आवश्यकता है तब तक सही मायनों में न तो भारत आर्थिक रूप से सम्पन्न हो सकता है और न ही देशवासी सही मायनों में खुशहाल हो सकते हैं। इसलिए वे अक्सर कहा करते थे कि-
हर खेत को पानी, हर हाथ को काम।
हर तन को कपड़ा, हर सर को मकान।
हर पेट को रोटी, बाकी सब बात खोटी।
चौ. देवीलाल ने 25 सितम्बर, 1914 को एक समृद्ध जमींदार परिवार में जन्म लिया और पले व बढ़़े, लेकिन वे उन बुराइयों और कमजोरियों से बचे रहे जो इस प्रकार के माहौल में पलने वालों में साधारणतया आ जाती है। इसका कारण बना कुछ उनका स्वभाव और कुछ सामयिक परिस्थितियां, जिसे व्यक्ति विशेष की विशिष्टता कहा जा सकता है। जब वे छोटी अवस्था में थे तो उनकी मां का देहांत हो गया। परिणामस्वरूप बचपन में ही दादा जी अंतर्मुखी होते चले गए। उन्हें अपने निर्णय खुद ही लेने के लिए अपने आपको तैयार करना पड़ा। गलत-सही जो भी निर्णय उन्हें करने पड़ते थे वह अपने मन से करते थे या फिर गांव तथा स्कूल के उन साथियों की देखादेखी जो उन्हें अपने दिल के करीब लगते थे। इसी के चलते वे छोटे किसानों, मुजारों और निर्धन परिवारों से आने वाले संगी-साथियों के करीब आते गए। बड़े जमींदारों के बच्चे अच्छे कपड़े-लत्ते और जूते पहन कर स्कूल जाया करते थे। साधारण परिवारों के बच्चे आमतौर पर बिना जूतों के, नंगे पैर ही स्कूल जाते थे। मेरे दादा जी भी अपने जूते स्कूल के रास्ते किसी झाड़ी या पत्थर के नीचे छिपा कर नंगे पैर स्कूल जाते थे। इस प्रकार उनका मेलजोल जमींदार परिवारों के बच्चों की बजाय निर्धन किसानों और मुजारों-काश्तकारों के बच्चों के साथ बढ़ता चला गया। यही झुकाव आगे चलकर देवीलाल को बड़े किसानों और जमींदारों के विरुद्ध मुजारों और किसानों के हकों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा का सबब बना। पांचवी कक्षा के बाद वे डबवाली, फिरोजपुर और मोगा के स्कूलों में पढ़े। छात्रावासों के स्वावलंबी जीवन ने उनमें आत्मविश्वास और साथ ही जुझारूपन भी भर दिया था। आधुनिक खेलकूद की सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी लेकिन अखाड़े में कुश्ती लडऩे का शौक लग गया। इस शौक के लिए उन्हें कभी-कभी छात्रावास का अनुशासन भी भंग करना पड़ता था और उसकी सजा के रूप में जुर्माना आदि भी भरना पड़ता था। छात्रावासों में उस समय सबसे बड़ी पाबंदी थी क्रांतिकारी साहित्य पढऩे की और देवीलाल को उसी का चस्का लग गया। वे अक्सर बताया करते थे कि 'छात्रावास में रहते हुए देशभक्ति का साहित्य पढऩा वर्जित था, देशभक्तों के चरित्र पर बहस करने की सख्त मनाही थी। राष्ट्र-प्रेमी संस्थाओं की सदस्यता लेना और साम्राज्यवाद विरोधी सार्वजनिक सभाओं में भाग लेना सर्वथा निषिद्ध था।Ó दादा जी जब छात्रावास में विभिन्न विचारों के अध्यापकों और विद्यार्थियों के सम्पर्क में आए तो उनका झुकाव अंग्रेज सरकार के खिलाफ छपने वाले साहित्य की ओर बढ़ा। राष्ट्रपे्रम की खबरों वाले अखबारों को छात्रावास में छिप-छिपकर पढ़ा जाने लगा। एक दिन पकड़े गए और छात्रावास से निकाल दिए गए। उनके साथ उनके दो-तीन और साथी भी निकाले गए। घर वालों को पता चलता तो और मुसीबत खड़ी होती इसलिए साथियों के साथ कमरा किराए पर लेकर वहीं बाहर रहने लगे और पढ़ाई जारी रखी।
    वे मोगा के स्कूल में दसवीं कक्षा में थे कि आजादी की जंग ने नया मोड़ ले लिया। सन् 1929 में लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें पूर्ण आजादी की मांग की गई। दादा जी अपने कुछ साथियों के साथ स्वयंसेवक के रूप में शामिल हुए। सन् 1926 में ही डबवाली के स्कूल में पढ़ते हुए वे 'शेरे पंजाबÓ लाला लाजपत राय के प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। नवंबर, 1928 में जब लाला लाजपत राय की पुलिस की लाठियों के प्रहार के कारण मृत्यु हो गई तो वे भगत सिंह और उनके साथियों की क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर आकर्षित होने लगे। मोगा के स्कूल में पढ़ते हुए एक दिन उन्हें पता चला कि पंडित मदन मोहन मालवीय लुधियाना आ रहे हैं। वे अपने साथियों के साथ उनका भाषण सुनने लुधियाना पहुंच गए। वहां उन्हें पता चला कि मालवीय जी का भाषण अमृतसर में होगा तो वे अमृतसर पहुंच गए। लेकिन उनके वहां पहुंचने से पहले ही मालवीय जी का भाषण हो चुका था और काजी अब्दुल रहमान का भाषण हो रहा था। भाषण समाप्त होते ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। लेकिन देवीलाल और उनके साथियों का जोश उस देशभक्ति पूर्ण माहौल को देखकर प्रबल हो गया। वे कांग्रेस के स्वयंसेवक के रूप में भर्ती होकर स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने लगे और देश की आजादी के लिए अनेक बार जेल गए।
दादा जी देश के उप-प्रधानमन्त्री और हरियाणा के मुख्यमन्त्री सहित अनेक प्रमुख पदों पर रहे लेकिन उनके मन में कभी किसी बड़े से बड़े पद का भी मोह नहीं था। 1989 में देवीलाल को सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री पद के लिए चुन लिया गया और उन्होंने यह पद वीपी सिंह को सौंपकर खुद उप-प्रधानमंत्री बनना स्वीकार किया जिसके चलते चौधरी देवीलाल की छवि आज भी लाखों-करोड़ों लोगों के मन में बसी हुई है। हरियाणा के ताऊ सारे भारत के ताऊ बन गए हैं। उनकी जीवन-यात्रा निरंतर संघर्ष और विद्रोह की कथा रही है जो आने वाली पीढिय़ों के लिए लंबे समय तक प्रेरणा-स्त्रोत बनी रहेगी। भारतीय राजनीति को कल्याण का स्वरूप प्रदान कर ग्रामीण जन चेतना के संवाहक के रूप में मेरे दादा चौ. देवी लाल ने ग्रामीण समाज विशेषकर किसान, मजदूर, गरीब व दबे-कुचले लोगों में जन-चेतना जगाकर उसको अपने अधिकारों व उसकी रक्षा के प्रति सचेत करते हुए अधिकार पाने के लिए संघर्ष का रास्ता दिखाया।
आज उनकी नौवीं पुण्य तिथि है और वे चाहे शरीरिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके ऊंचे आदर्श व जीवनमूल्य हमारे लिए पथ प्रदर्शक के रूप में हमें जीवन की सही राह दिखाने का काम कर रहे हैं। उन्होंने मुझे ही नहीं अपितु भारत-भर के हजारों नेताओं को उंगली पकड़कर राजनीति में चलना सिखाया। उनकी आत्मा आम लोगों,  ग्रामीण समाज व छोटे कस्बों में रहने वाले कमरे वर्ग में बसती है। उनका जीवन दर्शन उनकी सोच एवं नीतियों के माध्यम से सर्वहारा वर्ग का उत्थान नितान्त आवश्यक है। महात्मा गांधी, सर छोटू राम, चौ. देवीलाल, चौ. चरण सिंह सरीखे नेताओं ने अपनी राजनीति के सफर का रास्ता गांवों के माध्यम से तय किया। इसलिए वो कहा करते थे- 'भारत की सुख एवं समृद्धि का रास्ता गांवों से होकर गुजरता है।इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि आजादी के 63 वर्ष बाद भी देश के गांवों व छोटे कस्बों में बिजली, पानी, स्वास्थ्य व स्कूलों की सुविधाएं आशानुरूप नहीं है। जब तक गांवों व छोटे कस्बों का विकास नहीं होगा, भारत के विकास की परिकल्पना नहीं की जा सकती। उनकी पुण्य तिथि पर उनके दिखाए गए रास्ते पर चलकर ही हम जगत् 'ताऊÓ चौ. देवीलाल को सच्ची श्रद्धांजति दे सकते हैं।
- अजय सिंह चौटाला

आध्यात्मिक विरासत और धर्म का खजाना हैं सिरसा

हरियाणा प्रदेश के एक छोर पर बसे सिरसा जिला की आध्यात्मिक विरासत और धर्म का खजाना देशभर में ख्यात है। हरियाणा, पंजाब और राजस्थान की त्रिवेणी कहलाने वाला यह शहर धनाढय़ लोगों का निवास स्थान है। धन-धान्य की कमी न होने के चलते ही यहां धर्म का प्रचार भी खूब फला-फूला और अनेक ऋषि-मुनियों और मनीषियों-महापुरुषों ने इस शहर को अपनी कर्मभूमि बनाया। सिरसा के संस्थापक कहलाने वाले श्री श्री 1008 बाबा सरसाईं नाथ की बात करें या फिर सच्चा सौदा के संस्थापक बेपरवाह मस्ताना शाह की, धर्म और अध्यात्म की गंगा यहां सदैव बहती रही है।
    सिरसा में डेरा सच्चा सौदा, राधास्वामी सत्संग ब्यास का आश्रम, संत निरंकारी भवन के स्थापित आश्रम हैं वहीं पीर-फकीरों की अनेक दरगाहों और डेरों का यहां बाहुल्य है। बाबा श्योराम दास, बाबा बिहारी जी और बाबा तारा जी की यहां काफी मान्यता है और इन महापुरुषों का सान्निध्य प्राप्त करने वाले लोगों ने जीवन की सफलता के मार्ग भी तय किए हैं। बाबा तारा जी ने इस इलाके को अपनी तपोभूमि बनाया और अपना चोला बदलने के लिए हरि की भूमि हरिद्वार को चुना। साथ ही शिवरात्रि के दिन उनका देहावसान हुआ।
    पंजाब एवं राजस्थान की सीमा के साथ लगते इस शहर की सभ्यता को अपने बीच समेटे हुए सिरसा के रानियां रोड पर ब्रह्मलीन हुए शिवभक्त सद्गुरू श्री बाबा तारा जी की लंबे समय तक तपोभूमि रही सिरसा को एक महान तीर्थस्थल के रूप में विकसित किया गया है। बेशक इस तपोभूमि को कुटिया कहते हैं लेकिन इसके वैभवशाली इतिहास और गौरवान्वित करते नक्श को देखते हुए इसे आधुनिक और प्राचीन स्थापत्य कला का नमूना कहा जा सकता है जिसके विकास के लिए प्रमुख समाजसेवी एवं हरियाणा सरकार में गृह राज्यमंत्री गोपाल कांडा व उनके अनुज गोविंद कांडा ने अथक प्रयास और मेहनत की है। उन्हीं की देखरेख में इस कुटिया में अहर्निश तेजी से विकास कार्य चल रहे हैं। कहना न होगा कि निकट भविष्य में यह कुटिया एक बहुत बड़े तीर्थ के रूप में अपना अस्तित्व कायम कर लेगी।
    बाबा तारा कुटिया पर प्रतिदिन न केवल सिरसा बल्कि दूरदराज से हजारों श्रद्धालु आकर बाबा तारा की कुटिया पर शीश झुकाते हैं और मन्नतें मानते हैं। अब तक लाखों लोग इस कुटिया पर आ चुके हैं। बाबा तारा ने फाल्गुन माह की शिवरात्रि के दिन हिसार जिले के हांसी तहसील में पड़ते गांव पाली में श्रीचंद सैनी के घर जन्म लिया था। बाबा तारा की दो वर्ष की आयु में उनके माता-पिता स्वर्ग सिधार गए। इसके बाद उनका पालन पोषण उनकी बुआ व फूफा जी ने गांव रामनगरिया में किया। बचपन से ही बाबा तारा शिवभक्ति में लीन रहते थे।
    जब उनकी अवस्था 15-16 वर्ष की थी तो परिजनों ने उनके विवाह की तैयारी की लेकिन तभी बाबा ने सांसारिक मोह त्याग दिया और सिरसा में सिद्ध बाबा बिहारी की सेवा करनी आरंभ की। उनके मार्गदर्शन में घोर तपस्या करते हुए बाबा बिहारी के आदेशानुसार उनके शिष्य सिद्ध बाबा श्योराम जी से नाम की दीक्षा ली। इसके बाद सिरसा छोड़ हिसार के घने जंगलों में घोर तपस्या की। इसी दौरान उनके सेवकों ने उनसे मिलकर सिरसा आने की प्रार्थना की। उनके प्रेमपूर्ण निवेदन को स्वीकारते हुए बाबा तारा ने रामनगरिया गांव के पास जंगल में कुटिया बनाकर इसे अपनी साधना, तप, शिवभक्ति और सद्कर्म से तपोभूमि में परिवर्तित कर दिया। ब्रह्मचारी संत के रूप में ख्यात हुए एकांतप्रिय बाबा तारा शिवभक्ति को अत्यधिक महत्व देते थे। रात्रिकाल में भी उनकी कुटिया में कोई सेवक नहीं रहता था क्योंकि उनकी धारणा थी कि शिवभक्तों की रक्षा भगवान शिव स्वयं करते हैं। बाबा की सादगी का परिचय इसी से मिलता है कि वे अपना निर्वाह 24 घंटे में मात्र एक समय रोटी व लाल मिर्च की चटनी से ही करते थे। लंबे समय तक मौन धारण करते हुए बाबा ने 12 वर्ष तक बिना अन्न के शिव की तपस्या कर सिद्धि प्राप्त की। जिस भी श्रद्धालु ने इस तपोभूमि को नमन किया उसका जीवन सफल हो गया।
    हर वर्ष फाल्गुन और सावन माह में शिवरात्रि पर्व के अवसर पर बाबा तारा जी शिवधाम, नीलकंठ, महादेव, हरिद्वार, बद्रीनाथ, केदारनाथ, नीलधारा, रामेश्वरम, अमरनाथ, उज्जैन के अतिरिक्त भगवान शिव के पूजनीय स्थलों ज्योतिर्लिंगों की उपमा के साथ कुछ सेवकों के साथ यात्रा करते थे। वर्ष 2003 को 20 जुलाई के दिन शिवरात्रि के पर्व पर बाबा तारा अपने सेवकों सहित हरिद्वार पहुंचे जहां 26 जुलाई को गंगाघाट आश्रम में परमानंद आश्रम में गए। अपने सेवकों को भोजन करवाने के बाद शिवरात्रि की पावन बेला शुरू होते ही वे अपने कमरे से बाहर आकर गंगाघाट पहुंच गए और वहां स्थापित शिवालय के निकट उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। कुटिया के प्रमुख सेवक गोपाल कांडा कहते हैं कि वे सब यह देखकर चकित थे कि इस महान संत ने शिव में अंतर्लीन होने के लिए पावन मुहूर्त व पावन गंगा घाट का चयन किया। बाबा की कुटिया में 71 फुट ऊंचा शिवालय आकर्षण का केंद्र है। शिवलिंग के आकार में ही बनाए गए इस शिवालय की सीढिय़ां धोलपुर पत्थर से बनी हैं जिन पर की गई नक्काशी देखने लायक है। शिवालय में दाखिल होते ही कारीगरों द्वारा तराशकर लगाए गए शीशे व शिवालय में चांदी पर की गई मीनाकारी श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है।
    शिवालय में स्थापित किया गया शिवलिंग महाराजा विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन से लाया गया है। इस शिवलिंग की पूजा अर्चना के लिए काशी से लाए गए विद्वान ज्योतिषाचार्य पंडित घनश्याम शर्मा की देखरेख में प्रतिदिन रूद्राभिषेक, शिवमहिमा स्तोत्र, शिव तांडव, शुक्ल यजुर्वेद का पाठ, दुर्गा सप्तशती व आरती की जाती है। शिवालय व नंदी जी के सामने निर्मित की गई मनमोहक भगवान शिव की प्रतिमा अपने आपमें ऐतिहासिक है। 35 फुट लंबे व 35 फुट चौड़े प्लेटफार्म पर स्थापित 108 फुट ऊंची शिव प्रतिमा विश्व की सबसे ऊंची शिव प्रतिमा है। मात्र सवा साल में 600 टन की इस प्रतिमा का निर्माण पिलानी के प्रसिद्ध मूर्तिकार मातूराम द्वारा किया गया। इस पर तांबे की पॉलिश की गई व इस मूर्ति के तिलक, नाभि, कुंडल, कड़ों को सोने की चादर से बनाया गया है। प्रतिमा की जटों से गंगा अवतरण का दृश्य इसके रूप को चार चांद लगाता प्रतीत होता है। सायंकाल को विद्युत किरणों व उषाकाल के सूर्योदय के समय गंगा अवतरण से होने वाली जलधारा देखने योग्य है। इस प्रतिमा के ठीक सामने इटली की तकनीक के सहयोग से दिल्ली के विशेषज्ञों द्वारा ऊं नमो शिवाय: शब्द पर आधारित फव्वारा दूरदराज तक के लोगों के लिए एक अनूठा दृश्य प्रस्तुत करता है।
    बाबा तारा की कुटिया परिसर में 5 हजार फुट लंबी तैयार की गई कृत्रिम गुफा के मुख पर हनुमान जी विराजमान किए गए हैं। गुफा के भीतर जंगल के प्राकृतिक दृश्यों के बीच ब्रह्मलीन बाबा तारा जी के जीवन से संबंधित झांकियां बनाई गई हैं। इसके अलावा गुफा के भीतर बाबा अमरनाथ के हिम शिवलिंग, कैलाश पर्वत, 12 ज्योतिर्लिंग आदि के कृत्रिम दृश्य व गुफा के दूसरे छोर के बाहर समुद्र मंथन का दृश्य यहां आने वाले पर्यटकों को आत्मविभोर कर देते हैं। बाबा तारा की कुटिया लगभग 20 एकड़ में विकसित की गई है जिसमें श्रद्धालुओं की सुविधा हेतु स्वचालित 140 किलोवाट व 125 किलोवाट के 5 जनरेट स्थापित किए गए हैं। कुटिया में लोगों के इलाज के लिए एक नि:शुल्क आयुर्वेदिक चिकित्सालय का भी संचालन किया जा रहा है जहां उच्च स्तर की कंपनियों की दवाइयों से जरूरतमंद मरीजों का उपचार किया जाता है। कुटिया प्रांगण में होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए एक विशाल शैड का निर्माण भी किया गया है। कुटिया समिति द्वारा शहर के विभिन्न चौराहों से मात्र एक घंटे के अंतराल में वाहन सुविधा उपलब्ध करवाई जाती है।
    कुटिया में आने वाले श्रद्धालुओं को नाममात्र कीमत पर देसी घी से निर्मित दोपहर भोज की व्यवस्था भी की जाती है। भोजन के लिए वातानुकूलित हट्स भी स्थापित किए गए हैं। बच्चों के मनोरंजन के लिए विभिन्न प्रकार के झूलों की भी व्यवस्था है। बाबा तारा कुटिया में अस्पताल एवं रिसर्च सेंटर की भी शुरूआत की गई है जिसमें हजारों लोगों की आंखों का उपचार व ऑप्रेशन किया जा चुका है। बाबा तारा के तीसरे निर्वाण दिवस के अवसर पर कुटिया में अतिरूद्र महायज्ञ 251 वेदपाठियों द्वारा किया गया था जो रावण के काल के उपरांत पहली बार हुआ। कुटिया में देशभर के ख्याति प्राप्त साधु महात्मा भी लगातार आध्यात्मिक गंगा बहाने के लिए समय-समय पर आते रहते हैं। इसके अलावा अनेक फिल्मी हस्तियां व गायकों ने इस तपोभूमि पर अपनी कला का जलवा बिखेरा है। दिन प्रतिदिन इस कुटिया में विकास कार्य तेजी से करवाए जा रहे हैं जिससे आने वाले एकाध वर्ष में ही कुटिया अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करेगी।

लम्हे खता करते हैं और सदियां सजा पाती हैं

देश अपनी आजादी की 64वीं वर्षगांठ मना रहा है। अंग्रेजों से मुक्ति के बाद देश ने विकास के क्षेत्र में अंगड़ाई ली है और आज विश्वशक्तियों के मुकाबले की स्थिति में आया है। इन 50-60 सालों में देश का राज-समाज बदला है। घर की वर्जनाओं को तोड़कर महिलाओं ने भी विभिन्न खित्तों में अपनी पहचान कायम की है। युवा शक्ति में नेतृत्व संभालने का माद्दा पैदा हुआ है और खाद्यान्न के मामले में देश आत्मनिर्भर हुआ है। भारत ने जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान के नारे को सार्थक सिद्ध करते हुए रक्षा, खाद्यान्न और विकास के क्षेत्र में जो अभूतपूर्व तरक्की की है, उसे देखकर तीसरी दुनिया के देश भी दांतों तले उंगली दबाने को विवश हैं। हमारी मुद्रा को नई पहचान मिली है। हमारे अस्तित्व को दुनिया मानने लगी है और हमारी विरासत और संस्कृतियों के अनूठे संगम को पाश्चात्य सभ्यता से ओतप्रोत देश भी अपनाने लगे हैं। योग और शिक्षा के मामले में इस विश्वगुरू देश की ख्याति को आज पंख लगे हुए हैं तो कितनी ही कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स ने देश को नई ऊंचाइयां प्रदान की हैं। कितनी ही ममता सौदा और ममता खरब ने खेल को उसके मुकाम पर पहुंचाया है तो राजनीति के क्षेत्र में उतरकर भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने में वे पीछे नहीं रही हैं। लेकिन इन सब चीजों के बीच जो हमने खोया है, उसे पाने के लिए नई पीढिय़ों को जमाने लग जाएंगे। हमने सुना है जब बुजुर्ग कहा करते थे कि लम्हे खता करते हैं और सदियां सजा पाती हैं। आज भारत के साथ वही हो रहा है। भ्रष्टाचार और बढ़ती आबादी आज देश के लिए सबसे बड़ी समस्या बनकर खड़े हो गए हैं। परिवार नियोजन के तमाम हरबे सिर्फ किताबी नजर आते हैं और जमीनी तौर पर इसके लिए पर्याप्त कार्य नहीं हो रहा। यह अलग बात है कि जागरूकता बढ़ी है और लोगों ने स्वत: ही कम बच्चों के सिद्धांत को अपनाया है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि भ्रष्टाचार को देश ने एक तरह से जरूरी तौर पर ही स्वीकार कर लिया है। देश का युवा वर्ग जिस संस्कृति को अपना रहा है वह हमारी परंपरा, संस्कृति, संस्कार और विचारधारा से कोसों दूर है। हालात यह हैं कि इंसां से हुआ पशु पराजित, नंगेपन की होड़ में, दो कौड़ी का नेता बिकता पूरे ढ़ाई करोड़ में। कहीं तन ढकने को वस्त्र नहीं तो कहीं तन ढकने का शौक नहीं। पिज्जा, बर्गर, हॉट डॉग की संस्कृति ने हमारे क्षीर, मालपुवे के संस्कारों को तिरोहित करके स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने की कुत्सित कोशिशें की तो देश के लोगों ने भी मिलावट के धंधे को शॉर्ट कट मेथड बना लिया। दवाइयां, खाद्य पदार्थ, मिर्च मसाले और यहां तक कि वनस्पति को भी दूषित करने की कोशिशें होने लगी। चिंताजनक और शर्मनाक यह है कि पूरी प्रशासनिक व्यवस्था इस तरफ तोताचश्मी तेवर अख्तियार किए हुए है। देशभक्तों के इस भारत ने उन तमाम ज्ञात-अज्ञात शहीदों को बिसरा दिया जिनके कारण देश को यह दिन नसीब हुए थे। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर देश के हर नागरिक को यह प्रण लेना होगा कि आपसी भ्रातृृभाव और ईमानदारी के भारतीय सिद्धांत को बल प्रदान करते हुए देश की एकजुटता, सभ्यता, संस्कृति, परंपरा और सद्भाव को बचाने के लिए काम करें। तभी हमारा स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाने के प्रयास सार्थक गिने जाएंगे।