नक्सल समस्या से जूझने के लिए तैयार की गयी सलवा जुडूम नाम की सामाजिक दीवार का इस तरह धीरे-धीरे धसक जाना बहुत ही निराशा-जनक है. यदपि यह भी सत्य है कि, इसकी बुनियाद बहुत ही कमजोर थी. अधिकृत रूप से सन 2005 में सरकार द्वारा शुरू किये जाने के बाद से ही ये विवादास्पद रही है और ये विवाद ही इसको सतत रूप से कमजोर करते रहे, जबकि ये प्रयास निसंदेह अच्छा था.
पंकज चतुर्वेदी
नक्सल प्रभावित राज्यों उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में अब यह बिलकुल स्पष्ट हो गया है कि नक्सल समस्या सिर्फ कानून व्यवस्था के विरुद्ध जन आक्रोश नहीं है, अपितु ये एक ऐसा गंभीर रोग है जो सामाजिक आर्थिक विषमताओं से उत्पन हुआ है और जिसकी अनदेखी और इलाज में लापरवाही से आज ये इतना घातक हो गया है की इसने देश में अन्य समस्यों और संकटों को पीछे छोड़ दिया है. इसकी गिरफ्त में इन उल्लेखित राज्यों की एक बड़ी आबादी आ चुकी है.
छत्तीसगढ़ नें इस समस्या से जूझने और निपटने की पहल करते हुए सन 1991 में 'जन-जागरण अभियानÓ जैसे आंदोलन की शुरुआत की प्रारंभिक तौर पर इस मुहिम से कांग्रेस के नेता और कांग्रेस की विचारधारा को मानने वाले लोग जुड़े, जिन्होंने अपने सामने महात्मा गाँधी के सिद्धांतों और सोच को रखा और इस सामाजिक अभियान को गति देने का प्रयास किया. इस अभियान में स्थानीय व्यापारियों एवं उद्योगपतियों ने भी भाग लिया बीजापुर, दंतेवाडा, कटरैली जैसे नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में इसे खासी लोकप्रियता भी मिली, किन्तु धीरे-धीरे नक्सल आतंक से घबराकर लोगों ने इससे किनारा कर लिया.
सलवा जुडूम और नक्सल वादियों के झगड़े में बस्तर संभाग के छह सौ से ज्यादा आदिवासी गांव खाली हो गए और लगभग साठ से सत्तर हजार आदिवासी पलायन कर सरकारी कैम्पों में रहने को मजबूर हो गए. इस सारी क्रिया एवं प्रतिक्रिया में दोनों पक्षों से बहुत खून भी बहा, नक्सल वादियों को तो खून खराबे से फर्क नहीं पड़ा, पर आम आदिवासी समुदाय के लोग इस सब से अंदर से टूट गए और इस तरह से सलवा जुडूम अपने अंत की ओर अग्रसर हुआ.
इस अभियान के प्रारंभ में तो सरकार को ऐसा लगा कि उसके हाथ में नक्सल समस्या का अचूक इलाज लग गया है. प्रारंभिक स्थितियों से ऐसी आस बंधी थी कि अब इस अभियान को जन अभियान सा दर्जा मिल जायेगा. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका, कुछ ऐसे भी हालात बने की सलवा जुडूम से जुड़े कार्यकर्ताओ ने अपना ठिकाना और आस्था बदल कर सरकारी हथियारों सहित नक्सल वादियों का हाथ थाम लिया. जब एक लंबे समय के बाद भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिलें तो इन परिणामों के अभाव में राज्य सरकार को अंतत: इस अभियान को अधिकृत रूप से बंद करने की घोषणा करनी पड़ी. राज नेताओं के बयानों पर बड़े-बड़े संवाद और विवाद करने वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया और इन्ही बयानों पर सम्पादकीय लिखने वाला प्रिंट मीडिया दोनों ही ने सलवा जुडूम के गुजर जाने की महत्वपूर्ण घटना को उतनी तवज्जों नहीं दी. शायद देश के आम आदिवासी की जिंदगी और मौत से जुड़ी ये नक्सल समस्या राजनेताओं के बयानों से बहुत छोटी और कम महत्व की है.
सलवा जुडूम या इसके पूर्ववर्ती जन आंदोलनों की विफलता से ये महत्वपूर्ण प्रश्न अब फिर सामने है, कि पूरी ताकत से जोर लगा रहे इस नक्सलवाद के इस विक्राल दानव से अब कैसे निपटा जाये? अब तक भारत की पुलिस और अर्धसैनिक बलों की रणनीतियां और कुर्बानियां इस लाल आतंक के सामने कमजोर पड़ कर मानसिक रूप से लगभग परास्त सी हो चुकी है! छत्तीसगढ़ के कुछ लोगो ने एक बार फिर एक नए गांधीवादी जन आंदोलन का फिर श्री गणेश किया है लेकिन क्या अब हम इस नक्सल वाद की आंधी को गाँधी के सिद्धांतों से रोक पाएंगे? या फिर कुछ और राह चुननी होगी परन्तु इस यक्ष प्रश्न का उत्तर अभी किसी के पास भी नहीं है ना केंद्र सरकार और नहीं इस लाल आतंक से जूझती इन राज्यों की आम जनता और वहां की सरकार.
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