दिल्ली से अलीगढ़ का करीब दो सौ किलोमीटर का सफर, कब खत्म हुआ पता ही नहीं चला. पता भी कैसे चलता? मेरे लिए तो यह सफर स्मृतियों का सफर बन गया था. हां, यह अजीब इत्तफाक था, जिस शहर को मैने पहले कभी नहीं देखा, वह इस कदर जेहन में बसा था कि उसकी एक-एक गलियां, एक-एक चौबारे देखे से लग रहे थे. अलीगढ़ के रास्ते में मैने 'स्मृतियों की पूरी एक फिल्म देख ली. सफर में बचपन की वो यादें ताजा हो गई, जिनका ताल्लुक अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्याल से था. दरअसल यह मेरे सपनों का सफर था. जानते हैं, मैं बहुत सपने देखता हूं दिन में भी और हां खुली आंखों से भी. करीब 15 साल पहले जब मैं किशोर था, तब एक सपना देखा करता था. और उस सपने में अलीगढ़ हुआ करता था.
यही वजह थी जब साप्ताहिक बैठक में सुतनु सर ने अलीगढ़ में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैय्यद अहमद पर आयोजित सेमिनार में हिस्सा लेने वालों के बारे में पूछा तो सबसे पहले मेरा ही हाथ उठा. हाथ उठाने की वजह थी मेरे बचपन का दोस्त नदीम जावेद. मैं और नदीम बचपन में उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के शाहगंज स्थित सेंट थामस स्कूल में पढ़ा करते थे. बचपन के दोस्त से कैसा गहरा रिश्ता होता है, आप इसे समझते ही होंगे. इस छोटे से कस्बे को हम लूना पर बैठ कर दिन में कई बार नाप लेते थे. स्कूल की कैंटीन हो या फिर मुन्नू की चाय की दुकान. नदीम के बगैर मजा नहीं आता था. 10वीं के बाद नदीम को अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में पढऩे के लिए भेज दिया गया और मैं दोस्त की जुदाई से अकेला रह गया. तब मैं सोचा करता था, काश मैं भी अलीगढ़ पढऩे के लिए जा पाता. अपने दोस्त से मिल पाता. उसके साथ खूब मस्ती मारता. लेकिन तब यह सुना था कि यहां तो केवल मुसलमानों के बच्चे ही पढ़ते हैं, लिहाजा मन मसोस कर रह जाता.
उस समय हमारे पूरे इलाके में अलीगढ़ विश्वविद्यालय की एक साख थी और माना जाता था कि जो बच्चा वहां दाखिला पा लेता था, वह फिर कुछ बन कर ही घर लौटता था. मुसलमान बच्चों के लिए तो अलीगढ़ बेहतरीन तालीम और कैरियर का मक्का था. जो भी सीनियर अलीगढ़ से छुट्टियों में घर आता, हम उससे अलीगढ़ विश्वविद्यालय के किस्से सुनते कि वहां पढ़ाई का कितना अच्छा माहौल है. बहुत बड़ी लाइब्रेरी है. किताबे मंगाने के लिए की शाहगंज की तरह ज्ञान पुस्तक भंडार के चक्कर नहीं लगाने पड़ते. सारी किताबें लाइब्रेरी में मिल जाती है. रात भर हॉस्टल के कमरों की लाइट जलती रहती है. यह भी सुनते कि पढ़ाई और अध्ययन का अलीगढ़ में ऐसा माहौल है कि कोई नाकाबिल बच्चा भी वहां जाकर अच्छे नंबर हासिल करने लगता है. अलीगढ़ की वजह से नदीम भी आज देश के सफल युवा नेता हैं. अलीगढ़ से छात्र राजनीति की शुरुआत कर वे एनएसयूआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष और यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव रहे. आज वे राहुल गांधी की टीम का हिस्सा हैं.
नदीम की यादों ने ही मुझे सपने में कई बार अलीगढ़ का सफर कराया. लेकिन जब मैने असल में अलीगढ़ की सफर किया तो सपने और हकीकत का अंतर नजर आया. सपने में मैं देखता कि विश्वविद्यालय में लड़कियां बुर्के में क्लास में आती और लड़के शेरवानी में. माहौल ऐसा सक्त की एक दूसरे से बात करना तो दूर, वे आपस में नजरे भी नहीं मिला सकते थे. और शिक्षक के रूप में मुझे लंबी दाढ़ी और उंचे अचकन वाले पजामे में गांव की मस्जिद के मौलवी साहब नजर आते. सब लोग उर्दू और फारसी में बात करते. अंग्रेजी से तो यहां कोई मतलब नहीं होगा. निकाह फिल्म ने सपने में देखे गए इन दृश्यों को और बल दिया.
लेकिन विश्वविद्यालय के परिसर में घुसते ही यह धारणा काफूर हो गई. यहां तो बुर्के और शेरवानी में लोग कम जींस और टी शर्ट ज्यादा नजर आए. लड़के-लड़कियों का झुंड देख कर बचपन की अपनी सोच पर खींझ आई. बचपन में मुझे यही पता था कि यहां सिर्फ मुसलिम छात्रों को ही दाखिला मिलता है, लेकिन यह क्या? यहां तो मैने कई छात्रों को हाथों में कलावा बांधे देखा. और अपने सेमिनार में मॉड प्रोफेसर शकील अहमद समदानी साहब से मिलकर और हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी मिश्रित उनके व्याख्यान को सुन कर तो शिक्षक की मौलवी साहब वाली छवि भी काफूर हो गई. परिसर में घूमते हुए यह एहसास हुआ की अलीगढ़ विश्वविद्यालय में कुछ तो अलग है. यहां का शैक्षणिक माहौल, यहां के पढ़ाकू छात्र. यहां के विद्वान शिक्षक, यहां के सेमिनार रूम. यहां के बहस-मुहाबिसे. यहां की पुरानी नक्काशी वाली मुगलई डिजाइन की खूबसूरत इमारतें. ऊंची और लंबी सीढिय़ा, छात्रावास, बेतरतीब झाडिय़ां, यहां की तहजीब, यहां की रवानगी, यहां के परिसर में घुली मस्ती, और शाम की अजान. इसे दूसरे विश्वविद्यालयों से जुदा करती है.
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