चेतन भगत
पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी अपने तीनों उपचुनाव हार गई. कांग्रेस के मुखर प्रवक्तागण अपेक्षा के अनुरूप छद्म साहस का प्रदर्शन करते हुए और अन्ना फैक्टर को ज्यादा तूल नहीं देने की कोशिश करते रहे. कुछ कांग्रेस प्रवक्ताओं का अति आत्मविश्वास तो लगभग मुग्ध कर देने वाला था.
जी करता रहा कि इतनी मुश्किल परिस्थितियों में भी निष्ठापूर्वक अपना दायित्व निभाने के लिए उन्हें भरपूर शाबाशी दी जाए. उपचुनावों में जीत से विजेता दल भी, खासतौर पर भाजपा, हैरान नजर आए. वे अब भी यही सोच रहे हैं कि आखिर किन शब्दों का प्रयोग करते हुए जीत पर कुछ ऐसी प्रतिक्रिया दें कि अन्ना की भूमिका भी नगण्य साबित हो जाए और जीत का सेहरा भी उनके सिर बंध जाए.
लेकिन अगर दोनों बड़ी पार्टियां चाहें तो इन नतीजों से अपने लिए कुछ जरूरी सबक ले सकती हैं. नहीं, अभी यह कतई नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस का खेल खत्म हो गया है और यह भी नहीं कहा जा सकता कि आगामी चुनावों में भाजपा की जीत सुनिश्चित है. मैदान अब भी सभी के लिए खुला है.
टीम अन्ना भी अभी यह तय नहीं कर सकती कि किस पार्टी को चुनाव जीतना चाहिए और किसे नहीं. अलबत्ता यह जरूर है कि अब इस बात का बहुत महत्व हो गया है कि टीम अन्ना आपके साथ है या आपके विरुद्ध. हमारे यहां चुनावों में जीत का अंतर बहुत कम होता है. मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग बंधक है यानी हालात चाहे जो हों, वे उसी को वोट देते हैं, जिसे उन्हें वोट देना है.
ऐसे में कुछ प्रबुद्ध मतदाताओं के 'फ्लोटिंग वोट्सÓ भी चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं. विश्लेषकों का मत है कि महज दो करोड़ भारतीयों का मत-परिवर्तन भी चुनाव परिणामों में नाटकीय परिवर्तन ला सकता है. टीम अन्ना धीरे-धीरे अपने लिए इतना बड़ा समर्थक वर्ग तैयार कर रही है.
कांग्रेस (या किसी भी पार्टी) को यह समझना चाहिए कि भले ही टीम अन्ना के सदस्य कोई चुनाव नहीं जीत सकते, लेकिन वे चुनाव परिणामों को प्रभावित जरूर कर सकते हैं. इन अर्थो में टीम अन्ना आज भारत के सबसे ताकतवर 'लॉबी ग्रुप्सÓ में से है. सौभाग्यवश टीम अन्ना के सदस्य भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए लामबंद हैं और यह देश के लिए अच्छा ही है.
मैं कांग्रेस को तीन सुझाव देना चाहूंगा. पहला सुझाव यह कि टीम अन्ना को मिले-जुले संकेत न दें. कभी कांग्रेस का कोई मंत्री सराहना के स्वर में अन्ना को अन्नाजी कहकर संबोधित करता है तो उसके अगले ही दिन अरविंद केजरीवाल को चुनाव लड़कर दिखाने की चेतावनी दी जाती है. यह अविवेकपूर्ण है. कृप्या टीम अन्ना को भारतीय राजनीति की एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार कर लें. दूसरा सुझाव यह कि यह तय कर लें कांग्रेस का अगला नेता कौन होगा. यदि राहुल गांधी वे नेता हैं, तो उन्हें केंद्रीय भूमिका निभानी शुरू कर देनी चाहिए. यह एक साहसपूर्ण कदम हो सकता है, लेकिन संभव है कि शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन करने से कांग्रेस की छवि में भी परिवर्तन आए. इतने बड़े पैमाने पर घोटाले उजागर होने के बाद तो किसी भी संस्था को शीर्ष स्तर पर बदलाव करने पड़ेंगे. तीसरा सुझाव यह है कि बिना किसी संकोच के लोकपाल बिल पास कराइए. ना-नुकुर नहीं, चतुर वकीलों सी दलीलें नहीं, टीम अन्ना, मीडिया या विपक्ष की लानत-मलामत नहीं, बस बिल पास कराइए. और ऐसा करते समय अधिक चतुराई न दिखाएं, हाई-आईक्यू वाले वकीलों को बिल में ऐसे पेंचोखम न निकालने दिए जाएं कि उसकी आत्मा ही मर जाए. आज पूरे देश की निगाहें इस बिल पर लगी हैं और आपकी टीम में चाहे कितने ही बुद्धिमान लोग क्यों न हों, लेकिन वे देश को मूर्ख नहीं बना सकते.
जहां कांग्रेस को सबक सीखने में समय लगेगा, वहीं भाजपा को भी तीन सबक सीखने चाहिए. सबसे पहली बात यह कि शीर्ष नेतृत्व की आपसी नूराकुश्ती पर अंकुश लगाएं. यह भाजपा की पुरानी बीमारी है या यह भी कह सकते हैं यह हर उस भारतीय संस्था की पुरानी बीमारी है, जिसके पास अपनी कोई वंशावली नहीं है.
हम दूसरों के द्वारा शासित होने के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि अब हमें समझ नहीं आता कि एक सशक्त जनतंत्र को कैसे संचालित किया जाए. यदि किसी पार्टी के पास कोई प्रथम परिवार है तो उसके लिए अपने नेता का चयन आसान हो जाता है. लेकिन अगर ऐसा कोई स्पष्ट शासक न हो, तब क्या किया जाए? भाजपा को इसी समस्या का समाधान खोजना होगा. सवाल केवल भाजपा का ही नहीं है, सवाल यह भी है कि क्या हम स्वयं-शासित होने को तैयार हैं? या हमें हमेशा ही किसी न किसी सामंती शासक की जरूरत होगी? भाजपा को इस संबंध में आत्ममंथन करना चाहिए कि पार्टी के अंदरूनी उपद्रवों को उजागर किए बिना अपने शीर्ष नेताओं का चयन किस तरह किया जाए.
दूसरी बात यह कि नरेंद्र मोदी का सद्भावना उपवास क्षमायाचना का एक प्रयास था, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था. वास्तव में वह एक बहुत भव्य आयोजन था. जब आप प्रायश्चित करते हैं तो उसे एक भव्य आयोजन की तरह नहीं करते. न ही आप इसके लिए कोई समयसीमा तय करते हैं या मंच प्रबंधन करते हैं.
यह जनता पर निर्भर है कि वह आपको क्षमा करने को तैयार है या नहीं. मोदी ने कुछ कदम जरूर उठाए हैं, लेकिन कुछ और कदम उठाने की जरूरत है. तीसरी बात यह कि भाजपा को भी सक्रिय होकर भ्रष्टाचार पर अपना एक अंदरूनी ऑडिट करवा लेना चाहिए. भ्रष्टों को पार्टी से निकाल बाहर करने के लिए लोकपाल की जरूरत नहीं है. ऐसी कार्रवाइयां ही उन्हें टीम अन्ना का समर्थन दिलाएंगी.
यह भारतीय राजनीति के लिए एक रोमांचक समय है. दोनों अग्रणी दलों के युवा नेता इस अवसर का लाभ उठाकर कुछ बदलाव कर सकते हैं. इससे उनके भविष्य की संभावनाएं भी उज्ज्वल होंगी और देश का भी भला होगा. आखिर देशहित तो सभी का ध्येय है.
(लेखक अंग्रेजी के प्रसिद्ध युवा उपन्यासकार हैं)
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