तो क्या मायावती अगली बार फिर भी मुख्यमंत्री बन पाएंगी? सवाल दिलचस्प है कि क्या मायावती अगली बार मुख्यमंत्री बन पाएंगी? यह सवाल उन की नोएडा यात्रा को ले कर है. अभी तक तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसी भी मुख्यमंत्री के लिए नोएडा एक अपशकुन की तरह रहा है.
आपका टोटल स्टेट
प्रिय साथियों, पिछले दो वर्षों से आपके अमूल्य सहयोग के द्वारा आपकी टोटल स्टेट दिन प्रतिदिन प्रगति की ओर अग्रसर है ये सब कुछ जो हुआ है आपकी बदौलत ही संभव हो सका है हम आशा करते हैं कि आपका ये प्रेम व उर्जा हमें लगातार उत्साहित करते रहेंगे पिछलेे नवंबर अंक में आपके द्वारा भेजे गये पत्रों ने हमें और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित किया व हमें हौसलां दिया इस बार दिसंबर अंक पर बहुत ही बढिय़ा लेख व आलेखों के साथ हम प्रस्तुत कर रहें हैं अपना अगला दिसंबर अंक आशा करते हैं कि आपको पसंद आएगा. इसी विश्वास के साथ
आपका
राजकमल कटारिया
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राजकमल कटारिया
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Friday, 28 October 2011
किसकी टोपी, किसके सिर
निगाहें कहां हैं. निशाना किधर है. और घायल किसे होना है. बात सियासत की हो या रंगमंच की. सबकुछ पहले से लिखा होता है. लेकिन कभी-कभी ऐसी अनहोनी हो जाती है जो सब किये कराये पर पानी फेर देती है.
राह चलेगा हाथी, बाकी रहे न कोय
प्रमोद कुमार
बसपा चुनावी तैयारियों के मामले में सबसे आगे है. चुनावी रणनीति के तहत अन्ना फैक्टर को भुनाने के लिए मुख्यमंत्री मायावती ने 'आपरेशन क्लीनÓ चला रखा है, इसी क्रम में उन्होंने दागी और भ्रष्टाचार के आरोप में लोकायुक्त की चपेट में आए अपने कई मंत्रियों को पैदल कर दिया है.
भगवा ब्रिगेड का शंखनाद
प्रमोद कुमार
उत्तर प्रदेश में भाजपा की चुनावी कमान संघ के प्रचारकों ने संभाल ली है. जबकि राजनाथ सिंह और कलराज मिश्र रथ यात्राओं के जरिए पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने में जुटे हुए हैं.
निर्यात का मोहजाल!
मृण्मय डे
आपने पढ़ा होगा, उद्योग एवं वाणिज्य व कपड़ा मंत्री, आनंद शर्मा ने देश के निर्यात को और बढ़ावा देने के लिए वित्तीय वर्ष 2011 में कई प्रोत्साहनों की घोषणा की है. ये घोषणाएं 13 अक्टूबर से लागू हुई हैं. प्रोत्साहन देने की यह घोषणा इस साल 12 फरवरी को इसी तरह की गई घोषणा की कड़ी है. हालांकि, ये घोषणाएं बहुत से लोगों को इस बात के लिए विचार मंथन का अवसर देती हैं कि आखिर इन प्रोत्साहनों से क्या हो सकता है और यूरोप और अमेरिका में चल रहे आर्थिक संकट के दौरान ये प्रोत्साहन निर्यात में कैसे तेजी ला पाएंगे.
चुनावों के तीन-तीन सबक
चेतन भगत
पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी अपने तीनों उपचुनाव हार गई. कांग्रेस के मुखर प्रवक्तागण अपेक्षा के अनुरूप छद्म साहस का प्रदर्शन करते हुए और अन्ना फैक्टर को ज्यादा तूल नहीं देने की कोशिश करते रहे. कुछ कांग्रेस प्रवक्ताओं का अति आत्मविश्वास तो लगभग मुग्ध कर देने वाला था.
ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
बेगम अख्तर मदनमोहन को तब से जानती थीं, जब वे लखनऊ रेडियो स्टेशन पर थे. बेगम दिल्ली आई हुई थी और उन्होंने रेडियो पर मदनमोहन का एक गाना सुना. फिर आधी रात को बेगम अख्तर ने मदनमोहन को फोन किया और कहा कि वही गाना, 'कदर जाने ना सुनाओ.
शेक्सपियर के शहर के अनपढ़ बच्चे
शिखा वाष्र्णेय
पुस्तकों की दुकानों, पुस्तकालयों, प्रकाशकों, लेखकों का शहर. लेकिन इस शहर में तीन में से एक बच्चा बिना अपनी एक भी किताब के बड़ा होता है.
अन्ना पर अभिभूत है पाकिस्तानी मीडिया!
अर्जुन शर्मा
भारत में चल रही अन्ना की आंधी की हवाएं सीमा पार पाकिस्तानी मीडिया में भी पहुंच चुकी हैं. पाकिस्तान का अंग्रेजी मीडिया अन्ना के आंदोलन को पूरा महत्व दे रहा है.
सरकार रहे या जाए, नींद पूरी आये
कर्नाटक में भाजपा सरकार संकट में है. हालात इतने बदतर हो रहे हैं कि सरकार बचाना मुश्किल है. भारतीय जनता पार्टी के 'क्राइसिस मैनेजरÓ मीडिया में खबरें चलवा रहे हैं कि उनके रातों की नींद हराम हो गई है और किसी भी कीमत पर वे लोग कर्नाटक की सरकार को बचा लेना चाहते हैं. लेकिन हकीकत यह नहीं है.
राजनीतिक संकट की इस घड़ी में भी भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी दिल्ली की बजाय एक बार फिर नागपुर में हैं. सरकार बचाने का उनका क्राइसिस मैनेजमेन्ट यह है कि उन्होंने अपने दो विश्वसनीय लोगों को सरकार बचाने के काम में लगा दिया है. इन दोनों की हैसियत क्या है वह उनका नाम जानकर ही समझ में आ जाता है. एक हैं विनय सहस्रबुद्धे जो कि रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी के निदेशक हैं तथा नितिन गडकरी के मित्र और परामर्शदाता हैं. क्योंकि भागे हुए विधायक कांग्रेस के संरक्षण में गोवा में आराम फरमा रहे हैं इसलिए गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर को भी विधायकों की मान मनौवल के काम में लगा रखा है. खुद गडकरी क्या कर रहे हैं? दोपहर दो बजे घर पर जब एक पत्रकार ने फोन करके बात करनी चाही तो जवाब मिला साहब सो रहे हैं.
इधर दिल्ली में भी हालात अच्छे नहीं है. सुषमा स्वराज हों, अनंत कुमार या अरुण जेटली कोई भी नहीं चाहता कि कर्नाटक की सरकार बचे. अनंत कुमार की खुन्नस है कि अगर वे प्रदेश में मुख्यमंत्री नहीं बन पाये तो भला येदुरप्पा मुख्यमंत्री क्यों बने रहे? अनंत कुमार केन्द्रीय टीम में हैं और वे कभी नहीं चाहेंगे कि कर्नाटक सरकार को दिल्ली का सपोर्ट मिले. कर्नाटक सरकार के जाने के बहाने अरुण जेटली और सुषमा स्वराज संघ को औकात बताना चाहते हैं क्योंकि झारखण्ड में इन नेताओं की मर्जी के खिलाफ जाकर सरकार बना ली गई थी जिसमें गडकरी की भूमिका अधिक थी. गडकरी को संघ का सपोर्ट था. ये नेता झारखण्ड का बदला कर्नाटक में निकलना चाहते हैं.
अब आप ही सोचिए, कर्नाटक में सरकार बचेगी भी तो कैसे? जब मांझी ही नांव डुबाने में लगा हो तो उसे पार कौन लगाएगा.
Thursday, 27 October 2011
इस दीवाली पर खाएं और खिलाएं मीठा
सरोज धूलिया
चॉकलेट्स, बिस्कुट, मिठाइयां, कुरकुरे, ड्राई फ्रूट्स... अरे! आपके तो मुंह में पानी आ गया. दीवाली का मौका है, तो इस त्योहार से जुड़ी लजीज चीजों को आखिर कैसे भूला जा सकता है. त्योहार के मौके पर स्वीट देना शुभ माना जाता है, इसलिए पिछले कुछ सालों में गिफ्ट के तौर पर स्वीट देना काफी कॉमन हो गया है. मीठे में आप ट्रडिशनल चीजें दें या मॉडर्न, सभी चीजों से बाजार भरा पड़ा है. बस, आप देने से पहले उस व्यक्ति के मूड का अवश्य ध्यान रखें, जिसे आप गिफ्ट दे रहे हैं.
त्योहार की शान होती हैं मिठाइयां
मुंह मीठा किए बिना त्योहार अधूरा सा लगता है. यही कारण है कि कई बड़ी कंपनियों ने इस मौके के लिए कई नई नए मिठाई पैक लॉन्च किए हैं.
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlzJrKW3e_2X0RzGloYEOH4889fLzM0C2ein9_3eeyihbGRo5AX-oHoyvUfmBUSG4PaDOVRIe0G7SDNOJNBgNoY436bOL5eUWtRhNXydjX6DN2i_XRjluSq1PNydGS3AB_AQib4w4Ga4U/s320/dsc4835copy01ra5.jpg)
चॉकलेट्स, कुकीज, कुरकुरे, ड्राई फ्रूट्स
बदलते समय के साथ गिफ्ट कल्चर में भी जबर्दस्त बदलाव देखने में आया है. पहले दीवाली के दिन घर में मिठाइयां, रसगुल्ले, गुलाबजामुन, खीर आदि ट्रेडिशनल चीजें खिलाने और भेंट करने का चलन था, वहीं आज इसकी जगह चॉकलेट्स ए टॉफी और बिस्कुट लेते जा रहे हैं. त्योहार के मुताबिक आकर्षक गिफ्ट पैक में लॉन्च की जा रही ये चीजें आज लोगों की पसंदीदा बनती जा रही हैं. नेस्ट्ले, कैडबरी, फाइव स्टार और पर्क के कई साइज में लाए गए चॉकलेट पैक भी गिफ्ट के तौर पर खासा आकर्षण के केंद्र बने हुए हैं. 'कैडबरी सेलिब्रेशन के तहत आप छोटे गिफ्ट पैक में चार चॉकलेट के साथ एक जेम्स और छोटी-छोटी गोल चॉकलेट पैक भी खरीद सकते हैं. वहीं 'अमूल का छह पैकेट पैक भी अच्छा गिफ्ट आइटम है. 'कुकी मैन ने इस दिन के लिए ऑस्ट्रेलियाई कुमी, गोल्डन ब्राउन क्राउन लिए मफिन, चॉकलेट डिप्ड कुकीज, क्रीम फील्ड कुकी, सुपर कुकी जैसी कई टेस्ट व फ्लेवर वाली लजीज चीजें पेश की हैं. ट्रेडिशनल और मॉडर्न टिन पैकों और बॉक्स पर गणेश और पार्वती के आकर्षक डिजाइनों के अलावा रंग-बिरंगे दीयों, लडिय़ों और पटाखों को बनाया गया है, जो पूरी तरह त्योहार का अहसास करवाते हैं. वहीं 'ब्रेड एंड मोर ने स्पेशल गिफ्ट हैंपर निकाले हैं, जिसमें केक, मफिन्स में कई टेस्टी फ्लेवर लाए गए हैं. चटपटा देने की सोच रहे हैं तो 'कुबेर और 'नवरत्न कंपनी की खट्टी-मीठी मूंग दाल खरीद सकते हैं. वहीं 'कुरकुरे ने भी इस मौके के लिए कई साइज पैक लॉन्च किए हैं. 'बरिस्ताÓ के चॉकलेट्स पैक, केक, क्रंची क्रीम चॉकलेट ट्रीट भी इस मौके पर मुंह मीठा करने के लिए अच्छा गिफ्ट है. 'निरूलाज ने भी इस मौके के लिए कई तरह के ऑफर्स के साथ कई नई टेस्टी चीजें लॉन्च की हैं. चॉकलेट रीगल फैस्टिव पैक में डिजाइनर हैंड क्राफ्टेड चॉकलेट हैं, तो वहीं लीकर फ्लेवर्ड चॉकलेट में कई नए फ्लेवर लाए गए हैं. इन ऑफर्स के साथ ही आप कई तरह के प्राइज भी जीत सकते हैं. ड्राई फ्रूट्स देने की सोच रहे हैं, तो हल्दीराम, बीकानेर आदि कई बड़ी कंपनियों ने कई साइज में ड्राई फ्रूट्स पैक लॉन्च किए हैं.
लजीज खाने के बाद अगर पीना हो ठंडा
दीवाली में छोटी दीवाली, बड़ी दीवाली और भैजा दूज आदि मौके पर कई तरह के व्यंजन बनते हैं. मीठा और ऑयली खाना खाने के बाद मन करता है, कुछ ठंडा पीने का. ऐसे में आप ट्राई कर सकते हैं, आजकल कुछ बड़ी कंपनियों द्वारा निकाले गए फेस्टिव ऑफर पर. 'कोका-कोला ने इस मौके के लिए दो लीटर की बोतल पर 250 मिली ज्यादा का ऑफर दिया है. वहीं 'मिनट मेड कंपनी का छह पैक का ऑफर भी लुभावना है. चार पैक व छह पैक वाला 'स्लाइस मंगोला की आकर्षक गिफ्ट पैकिंग भी खासा लुभाती है, जिनके साथ फ्री ऑफर के तौर पर दिए जा रहे दीए से आप दीवाली की रात को रोशन कर सकते हैं. 'रिएल के चार पैक वाले ड्रिंक ऑफर की भी माकेर्ट में खासी डिमांड है.
अन्य आइटम्स
ऊपर दिए गए इन आइटम्स में से आपको अगर कुछ भी पसंद नहीं आ रहा है, तो आपके लिए हम और भी कुछ नए गिफ्ट लाए हैं. 'पास-पासÓ ने माउथ फ्रेशनर का गिफ्ट पैक निकाला है, जिसमें आपको चार डाइनिंग टेबल पैक मिलेंगे. इसके तहत खजूर, सौंफ, मिश्री, चांदी के वर्क युक्त इलायची आदि का मजा लिया जा सकता है. कई तरह के लजीज व्यंजन खाने के बाद माउथ फ्रेशनर आपको तरोताजा कर देगा. अगर आप कुछ हेल्दी चीज के ऑप्शन पर जाना चाहते हैं, तो 'यूनीफूटी ने कई गिफ्ट हैंपर निकाले हैं. इसके एक पैक में तीन लाल सेब, तीन संतरे, दूसरे पैक में तीन लाल सेब, तीन हरे सेब, तीसरे पैक में तीन लाल सेब, तीन संतरे और 500 ग्राम अंगूर वहीं चौथा पैक 12 पीसेस कीवी का है. कहते हैं कि सेहत से बड़ी चीज कोई नहीं होती, तो त्योहार के इस मौके पर सेहत को नजरअंदाज करना ठीक नहीं. इनकी आकर्षक पैकिंग भी पाने वाले को लुभाए बिना नहीं रहेगी. अगर आप कुछ हटकर सोच रहे हैं, तो 'डाबर कंपनी के च्वयनप्राश और हनी के ऑप्शन पर जा सकते हैं. अब जब विंटर ने दस्तक दे दी है, तो यह किसी के लिए भी लंबे समय तक उपयोग में आने वाला हेल्दी आइटम बन सकता है.
उत्सव है, तो कुछ न कुछ देना है, यह सोचकर गिफ्ट्स न दें. गिफ्ट्स ऐसा दें, जो कि दूसरा एंजॉय कर सके.
दीवाली का लुभावना बाजार
मेधा चावला
खुशियों और रोशनी का त्योहार दीवाली हमारे यहां बहुत मायने रखता है. यही वजह है कि इस मौके पर शॉपिंग पर भी पूरा जोर रहता है. फिर चाहे ज्यूलरी खरीदनी हो या घर के लिए कोई आइटम. ऐसे में बाजार भी लेटेस्ट से लेटेस्ट आइटम पेश करने में पीछे नहीं रहता. डालते हैं इसी पर एक नजर:
झिलमिलाती रोशनी, मिठाइयों का स्वाद और पटाखों की धूम से हर दिल में खुशियां भरने वाले दीवाली के त्योहार में बस कुछ ही दिन बचे हैं. इस त्योहार पर शॉपिंग का भी अपना ही मजा है, क्योंकि इस मौके पर पारंपरिक और मॉडर्न दोनों तरह की शॉपिंग को एंजॉय किया जा सकता है. घर के लिए फर्नीचर खरीदना हो या उसे रेनोवेट करवाना है, या फिर लेटेस्ट डिजाइन की ड्रेसेज लेनी हैं या किचन अपटुडेट करना है, इस सबके लिए खास दीवाली के मौके पर शॉपिंग की जाती है. यही वजह है कि बाजार भी इन दिनों लुभावनी चीजों और आकर्षक ऑफर्स से भरा रहता है. अब चाहे आपको शॉपिंग अपने लिए करनी है या फिर गिफ्ट देने के लिए, इसकी तैयारी के लिए यहां लेते हैं बाजार का एक जायजा.
दीवाली पर भगवान गणेश और देवी लक्ष्मी की खासतौर पर पूजा की जाती है और इन्हीं की मूर्तियां इस मौके पर सबसे ज्यादा नजर आती हैं. ऐसे में इस मौके के लिए ऐपिसोड ने गणेश जी की मूर्तियों की स्पेशल रेंज पेश की है. इसमें गणपति के कई रूप जैसे, पेबल गणपति, बाल गणपति, यौगिक गणपति, नारियल गणपति वगैरह शामिल हैं. इसके अलावा, ऐपिसोड ने अपनी सिल्वर कलेक्शन में दीये और कैंडल स्टैंड भी उतारे हैं. और अगर आप अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए कुछ खास गिफ्ट ढूंढ रहे हैं, तो ऐपिसोड की ही सिल्वर कलेक्शन में से टी सेट्स, टेज, वासेज वगैरह देख सकते हैं.
शॉपिंग के इस हिस्से में फ्रेजर ऐंड हॉज स्टोर भी बहुत कुछ लेकर शामिल हुआ है. यहां आपको 'ओमÓ से प्रेरित बेहद खूबसूरत दीये मिलेंगे. फिर यहां से गणेश जी और हनुमान जी की मूर्तियां भी खरीद सकते हैं. ये दोनों ही मूर्तियां टेराकोट आर्ट से बनाई गई हैं और इन्हें चांदी के जेवर पहनाए गए हैं. गिफ्ट करने के लिए कैंडल स्टैंड, अगरबत्ती स्टैंड, फोटोफ्रेम्स में से ऑप्शंस ढूंढी जा सकती हैं. दीवाली पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाता है घर की रेनोवेशन और डेकोरेशन पर. इसी बात को ध्यान में रखते हुए तमाम स्टोर्स डेकोरेटिव आइटम्स की स्पेशल रेंज इस मौके पर पेश करते हैं, जिनमें घडिय़ां, पिक्चर फ्रेम्स, वॉल हैंग्गिंस वगैरह शामिल होते हैं. फिर इन दिनों तो क्रिस्टल के डेकोरेटिव आइटम्स को भी खासा पसंद किया जा रहा है, जिसके लिए स्वारोवस्की ने डेकोरेटिव आइटम्स की पूरी रेंज पेश की है. इस रेंज में क्रिस्टल में घडिय़ांए फोटो फ्रेम्स तो हैं ही. साथ ही इनमें आपको खूबसूरत रंगों और डिजाइंस में फ्लॉवर अरेंजमेंट और तितलियों वाले शो पीस भी मिल जाएंगे. इसी कड़ी में एल्वी भी शामिल है, जहां आप होम डेकोर, किचन और गिफ्ट से संबंधित कई आइटम्स की शॉपिंग ऑनलाइन भी कर सकते हैं. दीवाली की पूजा के लिए अगर आप स्पेशल पूजा थाली तलाश रहे हैं, तो एबनी में आपको जरूर कुछ खास मिल जाएगा. फिर यहां से ही आप दीवाली के लिए दीये और कैंडल, फोटो फ्रेम्स, वास, लैम्प्स जैसे डेकोर और गिफ्ट आइटम खरीदे जा सकते हैं.
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhI_cVevePtza1Q0Sas9bW0foFlxm5frRULb_sd3gZ7Bl3F0y9oaxkm1v0riIqp_BSMiLQX6OrnSqvNUOvXEFMINCE3PR-5CHDa9SSOw6ADF_QLCk1K5SHqSklPGR7Jv5-d_3Wk0Ku5bPo/s320/VBK16-VIJ_8405f.jpg)
यह है एक झलक दीवाली स्पेशल बाजार की, तो अब जब सारी लिस्ट आपके हाथ में है, तो इंतजार किस बात का है.
जब हादसे सेलिब्रेट होने लगें...
राजन प्रकाश
09/11 के उस काले दिन के 10 साल पूरे हो चुके हैं. दर्द को आज भी याद किया जा रहा है. घटना के चश्मदीद तलाशे जा रहे हैं, जो एक बार फिर बता सकें कि उस दिन उन्होंने कैसा महसूस किया था. 10 साल से लगातार वे यही बताते आ रहे हैं. टेलीविजन पर सक्रियता कुछ ज्यादा होती है इसलिए चर्चा में तरह-तरह का तड़का लगाया जाता है.
एक प्रमुख अंग्रेजी खबरिया चैनल लगातार एक्सक्लूसिव वीडियो चला रहा है. 'नैवर सीन बिफोरÓ की टैगलाइन के साथ. 10 साल के बाद भी हम एक्सक्लूसिव चीजें तलाश लाते हैं. सुनकर गर्व होता है. लेकिन यह सोचकर मिजाज थोड़ा खिन्न हो जाता है कि अब हम भयावह हादसों में बाजार तलाश रहे हैं. उन्हें सेलिब्रेट कर रहे हैं. हम कितने संवेदनहीन होते जा रहे हैं. अपने मन से 10 साल पुराना का एक बोझ उतारने का आज शायद सही अवसर है.
9/11 में हादसे के दौरान मैं पटना में रहा करता था. हमारे पास टीवी नहीं था. होता भी तो क्या? बिजली अपनी मर्जी से आती-जाती थी. इसी बीच मेरा रूममेट बदहवास आया और बताने लगा कि अमेरिका पर हमला हो गया है. वह मुझे समझा रहा कि कैसे एक जहाज आया और एक बिल्डिंग में टकरा गया. पलक झपकते 50 हजार लोग मर गए. फिर एक दूसरा जहाज टकराया और कई सौ लोग मर गए. उसकी ये एक्सक्लूसिव खबरें मेरा दिमाग खराब कर रही थीं. मैं ऊब चुका था. झल्लाकर मैंने कहा, 'चलो बहुत हुआ अमेरिकी वर्णन, बर्तन साफ करो. खाना बनाया जाए, हमला अमेरिका में हुआ है. पटना में नहीं
उसे मुझसे इस बात की अपेक्षा न थी. मैं उसकी नजर में सामान्य ज्ञान में बहुत रूचि लेता था. उसने सोचा था कि इस खबर से वो मुझे हैरान कर देगा, लेकिन मैं तो बर्तन साफ करने की बात कर रहा था. उसने मुझे यूं घूरा कि कि जैसे उसके पास कोई जहाज होता तो वह मुझसे टकरा देता. मुझे भी गलती का अहसास हुआ. मैंने मामले को संभालते हुए कहा कि तुमने शायद खबर ठीक से नहीं देखी होगी. एक जहाज में 50 हजार लोग कहां से आ गए. और वह अमेरिका है. वहां एक बिल्डिंग में 50 हजार लोग नहीं होते दोस्त. हालांकि उसे भी मेरी बात तार्किक लगी लेकिन एक्सक्लूसिव जानकारी का फैक्टर उसे पीछे हटने से रोक रहा था. तय हुआ कि आज खाना नहीं बनेगा. हम किसी ऐसे होटल में चलकर खाएंगे जहां जनरेटर हो ताकि टीवी पर सबकुछ देखा जा सके. हम एक अच्छे रेस्त्रां में पहुंचे. अच्छा खाना खाया. यादा देर तक खबरें देखने के लिए काफी देर तक डटे रहे. अंत में खाने का बिल भी उसी ने दिया क्योंकि अपनी एक्सक्लूसिव खबर को सही साबित करने की गरज उसे थी, मुझे नहीं.
घटना के करीब आठ साल बाद, एक टीवी चैनल पर मैं मुंबई हमलों के एक साल पूरे होने पर प्रसारित होने वाले विशेष कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार कर रहा था. एक्सक्लूसिव कार्यक्रम क्या हो सकते हैं इस पर मुंबई और दूसरे प्रदेशों के रिपोर्टरों से जानकारी मांग रहा था. सारे रिपोर्टर यह बता रहे थे कि वे एक्सक्लूसिव चीजें देंगे. हालांकि मैं जानता था कि वह खबर हर चैनल पर आएगी. बेस्ट वीओ आर्टिस्ट, बेस्ट वीडियो एडिटर और पैकेंजिग के बेस्ट लोगों के साथ 25 नवंबर को पूरी रात हम अपनी ओर से बेस्ट पैकेज बनाते रहे. मैंने पहले से कुछ कविताएं चुनके रखी थीं जिन्हें मैंने हर पैकेज स्क्रिप्ट में डाला. दो दिन की मेहनत के बाद 20 से ज्यादा अच्छे पैकेज तैयार हुए. एंकर को समझाया गया कि उनके चेहरे पर भी वैसे भाव आने चाहिएं जिस तरह की चीज पैकेज में हों. टीम ने मिलकर अच्छा काम किया. रात्रि जागरण सफल रहा.
अगली सुबह से जब कार्यक्रम प्रसारित होने शुरू हुए तो साथियों की तारीफ मिलने लगी. चैनल हेड अपनी कुर्सी से उठे. मेरे कंधे पर हाथ रखकर न्यूज रूम में ले गए. तारीफ हुई. तालियां बजीं. फिर अच्छा कार्यक्रम तैयार करने के लिए एक छोटी सी पार्टी भी मिली. एक आतंकी हमला फिर मेरे लिए अपने साथ एक सेलिब्रेशन लेकर आया था. भौतिकतावाद की पराकाष्ठा शायद इसे ही कहते हैं. बहरहाल मन का बोझ थोड़ा कम हुआ है.
(साभार : द संडे इंडियन से लिया गया)
सपना होगा पूरा
रामसर में स्थापित होगा रूखमों बाई माण्ड गायिकी प्रशिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्र
रूखमों की हार्दिक इच्छा थी कि थार में माण्ड गायिकी की परम्परा को आगे बढ़ाया जाए. उम्र के अन्तिम पड़ाव में रूखमों बाई द्वारा प्रयास कर कुछ कलाकारों को माण्ड गायिकी सिखाना आरम्भ भी किया मगर शरीर ने साथ नही दिया. अलबत्ता रूखमों की बहू हनीफा ने माण्ड गायिकी के कुछ गुर जरूर सीखे.
थार की लता के रूप में ख्यातनाम रही माण्ड गायिका स्व. रूखमों बाई की अन्तिम इच्छा एवं सपना श्री कृष्णा संस्था बाड़मेर पूरा करेगी. संस्था रामसर में रूखमों बाई माण्ड गायिकी प्रशिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्र स्थापित करेगी. इसके लिए तैयारिया आरम्भ कर दी हैं. इस केन्द्र में माण्ड गायिकी की शिक्षा लोक कलाकारों को प्रदान कर थार की लोक कला और संस्कृति को संरक्षित रखने के प्रयास किए जाएंगे.
अनुसंधान तथा प्रशिक्षण केन्द्र में स्थानिय मांगणियार लोक कलाकारों सहित माण्ड सीखने के इच्छुक प्राथियों को भी माण्ड गायिकी सिखाई जाएगी. प्रशिक्षण केन्द्र का मुख्य उद्देश्य थार की सांस्कृतिक लोक परम्परा तथा गायिकी का संरक्षण करना ताकि विश्व भर के लोक संगीत प्रेमियों के बीच थार के लोक गीत संगीत की जो पहचान कायम हुई हैं वो बरकरार रहे. उन्होंने बताया कि प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित करने तथा सहयोग के लिए जिला कलेक्टर श्री गौरव गोयल को ज्ञापन देकर उनसे इस सम्बन्ध में चर्चा भी की गई. इस सम्बन्ध में माननीय मुख्यमंत्री महोदय को भी सहयोग के लिए निवेदन किया गया हैं .
रामसर ग्राम पंचायत मुख्यालय पर प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित करने के प्रयास पुरजोर तरीके से किऐ जा रहे हैं. इस कार्य के लिए थार के लोक संगीत प्रेमियो का सहयोग अपेक्षित हैं. उन्होंने बताया कि जल्द राज्य स्तरीय कमेटी का गठन करके इसे मूर्त रूप दिया जाएगा. ताकि रूखमों बाई का माण्ड गायिकी के सरंक्षण के लिऐ देखा सपना साकार हो सके. इस पावन कार्य में प्रवासी,अप्रवासी समस्त राजस्थानी संगीत प्रेमी किसी तरह की मदद करना चाहे तो उनका स्वागत हैं. राजस्थान की लोक संस्कृति और कला के सरंक्षण के लिए आप भी आगे आए. दिल खोल कर मदद करें ताकि एक गरीब किन्तु महान लोक गायिका का सपना पूरा हो सके.
हांसी बुटाना विवाद का सच
विवाद का तो कहीं ओर-छोर ही नहीं दिखता!
जालंधर से अर्जुन शर्मा
हांसी-बुटाना नहर के करीब ही हरियाणा द्वारा निर्मित की जा रही जिस दीवार का पंजाब में जोर शोर से प्रचार करके पंजाबियों को भावुक किया जा रहा है उस दीवार का अस्तित्व आंखों से देखने व तथ्यों की पड़ताल करके जो नतीजा निकलता है उससे पंजाब में करीब पांच दशक पहले फैलाई गई एक भ्रांति की याद ताजा हो गई है. उस दौर में भाखड़ा डैम का निर्माण हुआ था व तब शिरोमणि अकाली दल के नेतृत्व में एक शोशा छोड़ कर किसानों को भ्रमित किया गया था कि पंजाब के खेतों को मिलने वाले पानी से बिजली रूपी ताकत को निकालकर उपज बढ़ाने की ताकत को कम कर दिया है. इस प्रचार का जवाब देने के लिए बाकायदा पंजाब के लोक सम्पर्क विभाग को गांव-गांव में फिल्में दिखा कर लोगों को समझाना पड़ा था कि पानी का इस्तेमाल केवल बिजली पैदा करने वाली मशीन को घुमाने के लिए किया जाता है न कि पानी में से कोई चीज निकाली जाती है.
हांसी-बुटाना नदी के साथ बनने वाली दीवार को बरसात के मौसम में उफनने वाले घग्गर दरिया से होने वाली अनुमानित तबाही से जोड़ कर जिस प्रकार तथ्य पेश किए जा रहे हैं व सिरे से ही गलत व भ्रामक हैं. जिस विवाद को लेकर पंजाब व हरियाणा के नेता भारत-पाक नेताओं की तरह बयानबाजी कर रहे हैं. उसके आधार पर जो दीवार है उसकी उंचाई धरातल से एक फुट भी उंची नहीं है. सही मायनों में इस विवाद का तो कहीं ओर-छोर ही नहीं दिखता. हांसी-बुटाना नहर जिसमें अभी तक पानी छोड़ा नहीं गया है व विवादों के न्यायपालिका में लंबित होने के कारण इसमें पानी आने की निकट भविष्य में कोई उम्मीद भी नहीं है. बरसातों के दौर में जिस स्थान पर 1993 में पानी के तेज बहाव ने मिट्टी से बने बांध को तोड़ा व 2010 में पानी के बहाव ने हांसी-बुटाना नहर के उस हिस्से को तोड़कर हरियाणा में भारी तबाही मचाई थी. हरियाणा का जल सिंचाई विभाग उसी स्थान पर नहर के बैड से 2-3 फुट नीचे से लेकर वहां की भूमि के तल तक कंक्रीट की दीवार बना रहा है ताकि बाढ़ का पानी नहर के नीचे की मिट्टी में सेंध लगाकर फिर से नहर का हिस्सा क्षतिग्रस्त कर हरियाणा में कहर न बरपा दे जबकि बन रही दीवार से पंजाब की ओर जो भूमि है वहां करीब 25 गांव तो हरियाणा के हैं.
पंजाब व हरियाणा में पानी की बांट को लेकर उसे राजनीतिक मुद्दा बनाए रखने का रिवाज काफी पुराना है. घग्गर से बरसातों के दौर में नुक्सान से बचाने के लिए पंजाब सरकार को तो यह करना चाहिए था कि घग्गर के रास्ते में पडऩे वाले पुलों पर छोटे-छोटे बांधों का निर्माण करकेपानी को नियंत्रित करने की कोशिश की जाती ताकि सतलुज व यमुना नदी के रास्ते में गिरने वाले पानी (चंडीगढ़ से लेकर काला अम्ब तक के बरसाती पानी व इसी स्थान पर बह कर आने वाले पहाड़ों के बरसाी पानी) को रास्ते में थामने की कोई पहलकदमी की जाती पर जहां हरियाणा सरकार अपने प्रदेश के निवासियों को बाढ़ से बचाने के लिए सक्रिय है वहीं पर पंजाब सरकार के सिंचाई विभाग के अधिकारी ये कहकर घग्गर की सफाई तक से पल्ला झाड़ रहे हैं कि घग्गर की गहराई 'यादा होने के कारण उसे सफाई की जरूरत नहीं है यानि वे इस बात की पुष्टि करते हैं कि नदी की सफाई भी नहीं की गई और नेता हवा में बयान दाग कर माहौल को तनावपूर्ण बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं.
दीवार को पंजाब में सियासी मुद्दा बनाने की पूरी तैयारी
पिछली कांग्रेस सरकार में कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने पानी से संबंधित कुछ समझौतों को विधानसभा में रद्द करके सियासी वाहवाही लूटी थी जिसका यह असर रहा कि शिरोमणि अकाली दल के परंपरागत वोट बैंक मालवा में अकालियों को 2007 के विधानसभा चुनावों में मुंह की खानी पड़ी थी. कांग्रेस को मालवा में अ'छी खासी बढ़त मिली थी. अब चुनावी बेला में हरियाणा द्वारा जमीन के नीचे अपने क्षेत्र में स्थित हांसी-बुटाना नहर को बचाने के लिए बनाई गई दीवार को सत्ताधारी अकाली एक मार्मिक मुद्दा बनाने की तैयारी में हैं.
इस सियासी गोलबंदी का सबसे बड़ा सबूत पंजाब सरकार के लोक सम्पर्क विभाग की मासिक पत्रिका जागृति के जुलाई अंक में प्रकाशित दो पृष्ठ की गर्मागर्म स्टोरी है जिसका शीर्षक रखा गया है 'क्लेश की दीवारÓ. इस स्टोरी में एक चेतावनी के अंदाज में लिखा गया है कि हांसी-बुटाना नहर के साथ बसे पंजाब के ग्रामीण निवासियों में गुस्से की लहर पैदा हो गई है व पंजाब सरकार को आशंका है कि यदि जल्द ही कोई कारगर हल न निकाला गया तो हालात काबू से बाहर हो सकते हैं व इलाके की कानून व्यवस्था भी बिगड़ सकती है. इसे ध्यान में रखते हुए पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह व हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिन्द्र सिंह हुड्डा को पत्र लिख कर उनसे निजी हस्तक्षेप की मांग की है.
उन्होंने हुड्डा को चेतावनी दी है कि हरियाणा की तर्ज पर यदि पंजाब ने भी अपने क्षेत्र से जाने वाली नदियों व नालों पर बांध बनाने शुरू कर दिए तो हरियाणा के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी.
क्या यह लोगों के गुस्से, कानून एवं व्यवस्था के बिगडऩे की आशंका व पंजाग के मुख्यमंत्री द्वारा हरियाणा को जाने वाले नदी-नालों को बंद करने की सीधी चेतावनी नहीं है. और से सब सरकारी मुखपत्र में छपता है तो यह सारी सरकारी मशीनरी के लिए संकेत होता है कि हुक्मरान किस मुद्दे पर कौन सा स्टैंड ले चुके हैं ताकि सरकारी अमला अपना व्यवहार सरकार की मर्जी के अनुरूप ही करे. इसके बाद हरियाणा द्वारा बनाई गई '16फुट की दीवार का मुआयना करने गए पंजाब के मंत्री जनमेजा सिंह सेखों को जब वह दीवार नहीं दिखी तो वहां यह भी कहा गया कि हरियाणा वालों ने दीवार को जमीन में धंसा दिया है या दीवार को लिटा दिया है. ये सारी बातें पंजाब के उन इंजीनियरों के सामने हुई जो इंजीनयरिंग के कायदे जानते हुए इस बात को अ'छी तरह से जानते हैं किसी कंक्रीट की दीवार को जमीन में धंसा देने या लिटा देने का अर्थ क्या होता है.
दूसरी तरफ इस क्षेत्र में बसे पंजाब के किसान इस चिंता में डूबे हुए हैं कि यदि बाढ़ आ गई तो उनके खेतों में खड़ी फसलों की बर्बादी निश्चित है.
आसमानी आफत से डरे लोग सरकारी राहत के इंतजार में
ये बहुत अनोख अनुभव और खास अहसास था. हम जिन शहरों में रहते हैं वहां बरसात का मतलब गर्मी से राहत है जिसके स्वागत में छोटे छोटे ब"ो नाच-नाच कर बरसते पानी में नहाते हुए कुलांचे भरते हैं मगर उसी बरसात का दूसरा चेहरा देखने को मिला. जिस तरह महाभारत काल में एक दैत्य की कहानी आती है, जिससे सारे गांव की रक्षा के लिए हर रोज किसी न किसी परिवार का एक सदस्य स्वयं ही अपनी बली देने के लिए चला जाता है वैसे ही ये इलाका बरसात के मौसम में अपना कुछ न कुछ अर्पण जरूर करता है. खुशी से नहीं, मजबूरी में. यहां रहने वाले लोगों की असमानी आफत से डरी आंखें पहले आसमान की ओर देखती हैं फिर सरकार की ओर देख किसी राहत का इंतजार करती हैं पर दोनों और से बेबसी ही हाथ लगती है. बरसात जब चाहे अपना कहर बरपा दे. और सरकार के लोगों के दांत निकाल कर विकास के वायदे करते चित्र ही अखबारों में देखने को मिलते हैं. घग्गर के किनारे बसे गांव खराल के सुखदेव सिंह की जमीन अभी से पानी में डूबी हुई है. ये गांव हरियाणा में पड़ता है. हरियाणा सरकार ने सुखदेव जैसे किस्मत के मारों के लिए सिंचाई विभाग के माध्यम से पानी में डूबी जमीन को खाली करवाने के लिए रिंग बांध बनवाए हैं. पानी को लिफ्ट करके खाली पड़ी हांसी-बुटाना नहर में डालने के लिए पंप भी उपलब्ध हैं पर सुखदेव की फसल बर्बाद हो चुकी है पर, फिर भी सरकार का रुख उसे इतना हौंसला जरूर देता है कि मुश्किल दौर में मदद के लिए कोई कंधा पकडऩे वाला तो है.
दूसरी तरफ पंजाब में पडऩे वाले धर्महेड़ी गांव के सरपंच कश्मीर ङ्क्षसह का मानना है कि उनके बचाव के लिए सरकार ने कुछ नहीं किया जबकि मंत्री-संतरी तो गांव में आ रहे हैं पर खाली भाषण व साथ में आए मीडिया के लोगों को अपने बयान देकर चले जाते हैं. कश्मीर सिंह अकाली पार्टी की टिकट पर गांव का सरपंच बना हैं पर अपनी पार्टी की कारगुजारी को लेकर पूछे गए सवाल पर भड़क जाता हैं. 'पिछले साल बनी हांसी-बुटाना नहर का बांध न टूटा होता तो गांव का एक भी आदमी जिंदा न रहता. पानी नहर टूटने से हरियाणा में घुस गया पर फिर भी सारे गांव में दस से बारह दिनों तक चार से छह फुट तक पानी खड़ा रहा. पानी के निकास का कोई प्रबंध नहीं किया गया. नहरी विभाग वाले पता नहीं सारे साल कौन सी भंग खाकर सोए रहते हैं. इस बार जैसा मौसम है व टूकड़ों में बरसात हो रही है उसके चलते हम अभी तक सुरक्षित हैं पर अगर लगातार बरसात हुई तो हमारा कुछ नहीं बचेगा क्योंकि हरियाणा वालों ने अपनी नहर को जमीना स्तर तक मजबूत कर लिया है जिसके कारण उसके टूटने की कोई संभावना नहीं है. हमें अपने पशुओं की चिंता खाए जा रही है. हमारे घरों का तो भगवान ही मालिक है. ये सिर्फ एक गांव की व्यथा नहीं है. जहां हांसी-बुटाना नहर से पंजाब की ओर पड़ते हरियाणा के 25 गांवों में से टटियाना, सढऱेढ़ी, नंदगढ़, बबूक पुरा, हेमू माजरा, खुशहाल माजरा इत्यादि की यह दशा है वहीं पंजाब में पड़ते हंबड़ा, सरोला, ढाबा, चाबा, सस्सी ब्राह्मणा, सस्सी गु'जरां, हाशिमपुर, मांगटा, ध्यौरा, बीपुर और नया गांव आदि की वही हालत है. इसके इलावा इनके साथ लगते कस्बे रामपुर का बाजार भी तीन-चार फुट पानी में डूब जाता है व जब तक पानी नहीं उतरता वहां न तो दुकाने खुलती हैं न ही कोई गतिविधि चलती है. रामपुर के हरभजन सिंह बताते हैं कि घग्गर के कहर से हर साल नुक्सान होता है. कुछ दुकानदारों ने तो बाढ़ के डर से अपनी दुकानों की फिटिंग ही इस तरीके से करवा रखी है कि दो-तीन फुट पानी आ भी जाए तो उनका कोई नुक्सान न हो. धर्महेड़ी के सरकारी प्राइमरी स्कूल की दीवारें बयान करती हैं कि जब पानी आता है तो शिक्षा का यह मंदिर भी उसके आगे नतमस्तक होने को मजबूर होता है. वहां पढ़ रहे छोटे ब'चों को मिड डे मील खिलाया जा रहा था. दीवारों पर ढाई से तीन फुट पर लगे पानी के निशान अब भी देखे जा सकते हैं. गांव के जमीनी तल से तीन फुट उंचे बने इस स्कूल को देखकर ये तो माना ही जा रहा है कि पांच से छह फुट पानी गांव में आ ही जाता है.
नये निजाम के दामन पर है ज्यादा बड़ा दाग
कांग्रेस आलाकमान ने अशोक चव्हाण को फर्जीवाड़े से फ्लैट पाने के आरोप में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की गद्दी से हटा दिया. लेकिन नए मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण भी उसी तरह के फर्जीवाड़े में गले तक डूबे हुए हैं. उन्होंने जितने बड़े-बड़े झूठ बोलकर सरकार से फ्लैट हथियाए हैं वे कांग्रेस के लिए ज्यादा दागदार हैं.
पृथ्वीराज चव्हाण के चेहरे पर भ्रष्टाचार की कालिख नई नहीं है. सात साल पहले का मामला है. पृथ्वीराज चव्हाण ने 2003 में सरकार से सस्ते फ्लैट लेने के लिए सरकार के सामने गलत दस्तावेज सौंपे थे. मुंबई के वड़ाला स्थित भक्ति पार्क में उनका फ्लैट है, जो उन्होंने फर्जी दस्तावेज के आधार पर ही लिया है. अर्बन लैंड सीलिंग एक्ट के तहत महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने 2003 में ये फ्लैट पृथ्वीराज चव्हाण को अलॉट किया था. और सबूत के जो कागजात सामने आए हैं, उनके मुताबिक इस फ्लैट को पाने के लिए पृथ्वीराज ने कई तरह के झूठ बोले. उनमें से एक झूठ यह भी है कि चव्हाण ने फ्लैट लेने के लिए खुद को आमदार यानि महाराष्ट्र का एमएलए बताया था, जबकि उस वक्त पृथ्वीराज चव्हाण मध्यप्रदेश में थे. इसके अलावा एक झूठ यह भी है कि चव्हाण ने यह फ्लैट पाने के लिए तब अपनी सालाना कमाई सिर्फ 76 हजार रुपए ही बताई थी जबकि तब वे सांसद थे और भारत के किसी भी सांसद को साल भर में कितनी सैलरी मिलती है यह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है. दरअसल, कहानी ये है कि महाराष्ट्र अर्बन लैंड सीलींग एक्ट के तहत अपने विशेष कोटा में से पांच फीसदी फ्लैट बहुत ही कम कीमत पर मुख्यमंत्री किसी को भी अलॉट कर सकते हैं. लेकिन स्कीम के तहत पिछले सोलह साल में करीब 85 फीसदी फ्लैट नेताओं या उनके रिश्तेदारों को ही बांटे गए.
कुल मिलाकर कांग्रेस भले ही कितना ही प्रचार करे और पृथ्वीराज चव्हाण को भले ही कितना भी ईमानदार और साफ छवि का घोषित करे, लेकिन फ्लैट आवंटन के साथ-साथ चुनाव आयोग के सामने दिए गए संपत्ति के शपथ पत्र की जांच करने के लिए मामले की तह में जाए और सारी बातों को ध्यान से देखें तो पृथ्वीराज चव्हाण का दामन भी कोई कम दागदार नहीं है. फ्लैट आवंटन में अशोक चव्हाण के तो रिश्तेदारों के ही नाम थे, लेकिन पृथ्वीराज चव्हाण तो खुद फर्जीवाड़ा करके फ्लैट पाने में कामयाब रहे हैं. भ्रष्टाचार का दलदल यहां भी है और अशोक चव्हाण पर तो कीचड़ के कुछ छींटे ही उड़े हैं, पृथ्वीराज चव्हाण तो खुद उसके दलदल में गले तक डूबे हैं. इसीलिए कहा जा सकता है कि महाराष्ट्र के नए निजाम भी कोई दूध के धुले नहीं हैं.
अफजल तो मानता है कि संसद पर हमले का सूत्रधार वही था
तिहाड़ जेल नम्बर 3 में बंद अफजल गुरू ने वहां के अधीक्षक मनोज कुमार द्विवेदी से बातचीत के क्रम में न सिर्फ यह माना है कि संसद पर हमले का सूत्रधार वही था, अलबत्ता उसने पाकिस्तान में हुई तीन महीने की ट्रेनिंग के कई संस्मरणों को उनके साथ सांझा किया है.
जालंधर से अर्जुन शर्मा
देश की संसद पर हुए हमले के मुख्य सूत्रधार अफजल गुरु (गुरु नहीं, गुरू कश्मीर में दूध बेचने वाले ग्वालों की जाति का एक उपनाम है) की फांसी के संदर्भ में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ट्वीट करते हुए लिखते हैं कि जैसा तमिलनाडू विधानसभा ने किया, वैसा यदि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ने किया होता तो देश की प्रतिक्रिया क्या वैसी ही होती? इस छोटे से ट्वीट ने कश्मीर समेत सारे देश में एक नई बहस छेड़ दी है. उसी अफजल केे संदर्भ में यह तथ्य पाठकों के लिए काफी रूचिकर रहेगा कि दिल्ली की तिहाड़ जेल नम्बर 3 में बंद अफजल गुरू ने वहां केे अधीक्षक मनोज कुमार द्विवेदी से बातचीत के क्रम में न सिर्फ यह माना है कि संसद पर हमले का सूत्रधार वही था, अलबत्ता उसने पाकिस्तान में हुई तीन महीने की ट्रेनिंग के कई संस्मरणों को उनके साथ सांझा किया है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत और दर्शनशास्त्र के स्नातक मनोज ने अफजल गुरू के साथ की गई करीब 300 घंटे की लंबी बातचीत के आधार पर बाकायदा एक किताब लिखी है जिसमें अफजल के विचारों, उसके कश्मीर के संदर्भ में विश्लेषित दृष्टिकोण व कई अंतरंग बातों का जिक्र है.
2004 में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया अफजल को फांसी की सजा सुनाती है जिसके लिए 20 अक्तूबर 2006 की तिथि तय की जाती है. इसी दौरान राष्ट्रपति को रहम की अपील की याचिका भेजी जाती है.
5 साल बीतने तक वह याचिका पड़ी रहती है गृह मंत्रालय के पास? क्या मजाक है? एक अर्जी को फॉरवर्ड करने में पांच साल! क्या अन्ना हजारे गलत रोते हैं? क्या संसद का अपराधी इसलिए क्षमा कर देने लायक है कि वह कश्मीरी है? फिर कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों से लडऩे की क्या जरूरत है? उमर साहिब उन्हें अपने मंत्रीमंडल में ले सकते हैं. उनका हाथ किसने पकड़ा है? यदि राजीव गांधी के केवल इसलिए रहम के काबिल है कि वे तमिल हैं तो फिर उनके स्थान पर किसी महाराष्ट्रियन या पंजाबी को सजा दिलवाने की सिफारिश भी कर देनी चाहिए थी जयललिता को! देश का मजाक बना दिया है. संविधान को क्षेत्रिय हितों के नीचे कुचला जा रहा है पर सियासतदान केवल तभी सक्रिय होते हैं जब उन्हें लगता है कि उनके अधिकार छिने जा रहे हैं. उन्हें भ्रष्टाचार से रोकने को लोग सड़कों पर उतर आए हैं.
सीमा ने बदली रेखा
रजनीश शर्मा
हिमाचल प्रदेश में विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन ने सूबे की सियासी रंगत इस कदर बदली है कि राजनीतिक सूरमाओं के चेहरे का रंग भविष्य की चिंता में फीका पडने लगा है. तमाम बड़े नेताओं के विधानसभा क्षेत्र या तो खत्म हो गए हैं या फिर उन्हें आरक्षित घोषित कर दिया गया है. परिसीमन की चपेट में आने वालों में वर्तमान मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल के साथ-साथ तीन कैबिनेट मंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और नेता प्रतिपक्ष विद्या स्टोक्स भी शामिल हैं.
पुनर्सीमांकन के बाद दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा व कांग्रेस के समक्ष एक साथ कई चुनौतियां पहाड़ की तरह खड़ी हो गई हैं. हालांकि विधानसभा चुनाव करीब सवा साल बाद होने हैं, पर बड़े नेताओं ने जहां खुद के लिए सुरक्षित रणक्षेत्र तलाशना शुरू कर दिया है, वहीं उन्हेें अपने सिपहसालारों के लिए सुरक्षित 'चौकीÓ की भी चिंता सता रही है. इस चुनौती से उबरने के क्रम में उन्हें कहीं टिकट के दावेदारों में से कुछ को पुचकारना पड़ेगा, तो कहीं लताड़ से काम लेना होगा. ऐसे में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस बार विधानसभा चुनाव के लिए टिकट वितरण के दौरान हिमाचल प्रदेश में सियासी भू-डोल कई नेताओं के अरमान ध्वस्त कर देगा.
किसके पास क्या विकल्प है और कौन-सा दल किस तरह की मुसीबत से घिर सकता है, इस पर चर्चा से पहले हिमाचल की राजनीतिक तस्वीर को समझ लेना जरूरी है. गठन के समय से ही हिमाचल में कांग्रेस व भाजपा का प्रभाव रहा है. सूबे में कुल 68 विधानसभा क्षेत्र हैं. मौजूदा विधानसभा में कांग्रेस के 23 विधायक हैं तो 41 विधायकों के साथ भाजपा सूबे पर राज कर रही है. ठियोग के विधायक राकेश वर्मा, करसोग के विधायक हीरालाल व नूरपुर के विधायक राकेश पठानिया भाजपा के एसोसिएट सदस्य हैं तो कांगड़ा के विधायक संजय चौधरी बसपा के चुनाव चिन्ह पर जीतने के बाद भाजपा में शामिल हो गए. अब जरा एक नजर पुनर्सीमांकन से पहले व बाद के हालात पर. मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल हमीरपुर जिले के बमसन विधानसक्षा क्षेत्र से चुनाव लड़ते आए हैं. यह चुनाव क्षेत्र अब अस्तित्व में नहीं है. परिसीमन के बाद इसका हिस्सा मेवा, सुजानपुर और हमीरपुर में चला गया. ऐसे में धूमल के लिए सुरक्षित सीट की तलाश बहुत मुश्किल नहीं, तो आसान भी नहीं है. अगर वह हमीरपुर को चुनते हैं तो वहां से पहले ही भाजपा की उर्मिल ठाकुर विधायक हैं. फिर हमीरपुर में उन्हें भाजपा के कद्दावर नेता रहे स्वर्गीय ठाकुर जगदेव चंद के परिवार के राजनीतिक प्रभाव से भी लोहा लेना होगा. सबसे बड़ी बात यह कि जगदेव चंद ठाकुर के बेटे नरेंद्र ठाकुर फिलहाल कांग्रेस में हैं. अगर मुख्यमंत्री धूमल खुद के लिए नए बने सुजनापुर क्षेत्र को विकल्प के तौर पर लेते हैं तो उन्हें खास परेशानी नहीं होगी, क्योंकि सुजानपुर विधानसभा क्षेत्र में उनके पूर्व के क्षेत्र बमसन का काफी इलाका शामिल है. वैसे सही तो यह है कि पूरे हमीरपुर जिले को ही भाजपा का गढ़ माना जाता है.
सिंचाई व जनस्वास्थ्य मंत्री रविंद्र सिंह रवि का क्षेत्र थुरल भी खत्म हो गया है. इसे ज्वालामुखी, पालमपुर व सुलह विधानसभा क्षेत्रों में मिला दिया गया है. सोलन से चुनाव लड़ते आए राजीव बिंदल का चुनावी क्षेत्र आरक्षित हो गया है. रवि और बिंदल दोनों ही मुख्यमंत्री धूमल के खास सिपाही माने जाते हैं. इनके अलावा खाद्य, नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले विभाग के मंत्री रमेश धवाला के चुनाव क्षेत्र ज्वालामुखी का कुछ हिस्सा नए बने देहरा विधानसभा क्षेत्र में चला गया है. पहले इसे परागपुर विधानसभा क्षेत्र के नाम से जाना जाता था. भले ही खुद के लिए चुनाव क्षेत्र तलाशना धूमल के लिए परेशानी की बात न हो, पर रवि और बिंदल के सामने तो परेशानी आने ही वाली है. रवि ज्वालामुखी पर नजरें गड़ाए हैं, जबकि वहां भाजपा के रमेश धवाला किसी भी कीमत पर अपने विधानसभा क्षेत्र को खोना नहीं चाहते. थुरल से लगातार चार बार चुनाव जीतने वाले रवि के समर्र्थक दलील दे रहे हैं कि थुरल का कुछ हिस्सा चूंकि ज्वालामुखी में चला गया है, सो वहां से चुनाव लडऩा उनका हक बनता है. यह मुद्दा अभी से पार्टी के लिए मुसीबत का सबब बनने लगा है. रमेश धवाला ज्वालामुखी में किसी की दखलंदाजी सहन नहीं करेंगे. फिर धवाला शांता कुमार समर्थक हैं और रवि मुख्यमंत्री धूमल के खास. ऐसे में निकट भविष्य में यहां टिकट की लड़ाई चरम पर रहेगी.
सोलन सीट के आरक्षित होने से स्वास्थ्य मंत्री बिंदल के समक्ष संकट खड़ा हो गया है. अगर उन्हें कोई सुरक्षित सीट नहीं मिलती है तो हिमाचल में उनकी सियासी सेहत गिर सकती है. उनके पास फिर संगठन में जाने का ही रास्ता बचेगा. समीकरण तो खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री रमेश धवाला के विधानसभा क्षेत्र ज्वालामुखी के भी बदले हैं, लेकिन अन्य नेताओं के मुकाबले वह 'कंफर्ट जोनÓ में हैं. उनके क्षेत्र का कुछ हिस्सा नए बने देहरा विधानसभा क्षेत्र में गया है. भाजपा प्रवक्ता गणेश दत्त कहते हैं, 'पुनर्सीमांकन के बाद नए राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा को किसी तरह की परेशानी नहीं आएगी. पार्टी आपसी सहमति से टिकटों का बंटवारा करेगी. मतभेदों को पार्टी मंच पर ही सुलझा लिया जाएगा.Ó परिसीमन से अगर भाजपा असहज हुई है, तो कांग्रेस के लिए भी परेशानियां कम नहीं हैं. सूबे में कांग्रेस के स्तंभ माने जाने वाले वीरभद्र सिंह रोहडू़ से चुनाव लड़ते आए हैं. रोहड़ू सीट अब आरक्षित हो गई है. वैसे तो वीरभद्र सिंह का गृह क्षेत्र रामपुर है, लेकिन वह सीट पहले से ही आरक्षित है. पुनर्सीमांकन से भी इसमें कोई फर्क नहीं पड़ा है. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि वीरभद्र सिंह के पास नए अस्तित्व में आए विधानसभा क्षेत्र शिमला (ग्रामीण) से चुनाव लडऩे का विकल्प खुला है. कसुपटी विधानसभा क्षेत्र खत्म होने के बाद यह नया क्षेत्र बना है. कसुपटी पहले आरक्षित सीट थी, लेकिन शिमला (ग्रामीण) में परिणत होने बाद यह सीट अनारक्षित हो गई. कसुपटी से दो बार जीते कांग्रेस के विधायक सोहन लाल को वीरभद्र सिंह का खास समर्थक माना जाता है. इसके अलावा, वीरभद्र सिंह को अपने युवा समर्थक और बैजनाथ के विधायक सुधीर शर्मा को एडजस्ट करने की चिंता भी सता रही है. बैजनाथ सीट अब आरक्षित हो गई है. वीरभद्र सिंह चाहते हैं कि सुधीर शर्मा को पालमपुर से चुनाव लड़वाया जाए, लेकिन वहां पहले से ही कांग्रेस के बुजुर्ग नेता बीबीएल बुटेल जमे हुए हैं. विधायक सुधीर शर्मा के पिता व पूर्व मंत्री स्वर्गीय पंडित संतराम, वीरभद्र सिंह के साथ हर मुसीबत में खड़े रहे. सुधीर शर्मा उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं. जाहिर है, वीरभद्र सिंह को उन्हें उपकृत करना ही होगा.
यदि कांग्रेस में नेता प्रतिपक्ष विद्या स्टोक्स की बात की जाए, तो उनके विधानसभा क्षेत्र सुन्नी कुमार सैन का अस्तित्व खत्म हो गया है. उनके पास ठियोग से चुनाव लडऩे का विकल्प खुला हुआ है. उन्होंने तो बाकायदा इस आशय की घोषणा भी कर दी है. स्टोक्स के प्रभाव वाला कुछ इलाका सुन्नी कुमार सैन से निकलकर शिमला (ग्रामीण) में चला गया है. ठियोग के वर्तमान विधायक व भाजपा के एसोसिएट सदस्य राकेश वर्मा भी यहीं से चुनाव मैदान में उतरेंगे. राकेश वर्मा के प्रभाव वाले बलसन इलाके का कुछ हिस्सा चौपाल विधानसभा क्षेत्र में चला गया है. राकेश वर्मा परेशान हैं, क्योंकि चौपाल से चुनाव लडऩा उनके लिए व्यावहारिक नहीं होगा. तय है कि ठियोग विधानसभा क्षेत्र में आगामी चुनावी जंग बहुत रोचक होगी. कांग्रेस अध्यक्ष कौल सिंह ठाकुर कहते हैं, 'पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता आगामी चुनाव की रणनीति मिल कर तय करेंगे.
ऐसा नहीं कि परिसीमन के बाद सूबे के सभी नेता परेशान हैं. ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं है जो चैन की बंसी बजा रहे हैं. जोगेंद्र नगर से चुनाव लड़ते आए वर्तमान लोक निर्माण मंत्री गुलाब सिंह ठाकुर को परिसीमन से कोई फर्क नहीं पड़ा है. यही स्थिति परिवहन मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर की भी है. उनका अपने चुनाव क्षेत्र धर्मपुर में इस कदर प्रभाव है कि वह पांच बार अलग-अलग चुनाव चिन्ह पर विजयी हुए हैं. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कौल सिंह ठाकुर भी सुरक्षित हैं.
अलबत्ता कांग्रेस के पूर्व मंत्री और ऊना जिले के गगरेट से चुनाव लड़ते आए कुलदीप कुमार का चुनाव क्षेत्र अनारक्षित हो गया है. ऐसे में वह दौड़ से बाहर हो गए हैं. यही हाल चिंतपूर्णी विधानसभा क्षेत्र का है. यह सीट आरक्षित हो गई है. यहां से इस समय कांग्रेस के राकेश कालिया विधायक हैं. थोड़ी परेशानी हमीरपुर जिले की नादौन सीट से कांग्रेस के विधायक सुखविंद्र सिंह सुक्खू को भी होगी. उनके क्षेत्र के दर्जन भर पोलिंग बूथ अलग हो गए हैं.
पुनर्सीमांकन के बाद हिमाचल के सबसे बड़े जिले कांगड़ा से एक सीट कम हुई है. यहां कुल 16 सीटें थीं, पर अब 15 ही रह गई हैं. कांगड़ा जिले से थुरल विधानसभा क्षेत्र का अस्तित्व खत्म हुआ है. कुल्लू जिले में मनाली के तौर पर एक नई सीट बढ़ी है. कुल्लू में अब चार सीटें हो गई हैं. हिमाचल की राजनीति की गहरी समझ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार डॉ. एमपीएस राणा कहते हैं, 'पुनर्सीमांकन के बाद बदले हालात में दोनों दलों के सामने राजनीतिक चुनौतियां बढ़ गई हैं. जिन बड़े नेताओं के विधानसभा क्षेत्र खत्म या आरक्षित हुए हैं, उन्हें खुद के लिए चुनावी मैदान पर अनुकूल 'पिचÓ तलाशनी होगी. ऐसे में टिकट का बंटवारा दोनों दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित होगा. आगामी चुनाव हिमाचल के राजनीतिक इतिहास की नई इबारत लिखेगा.Ó
सपनों में अलीगढ़
दिल्ली से अलीगढ़ का करीब दो सौ किलोमीटर का सफर, कब खत्म हुआ पता ही नहीं चला. पता भी कैसे चलता? मेरे लिए तो यह सफर स्मृतियों का सफर बन गया था. हां, यह अजीब इत्तफाक था, जिस शहर को मैने पहले कभी नहीं देखा, वह इस कदर जेहन में बसा था कि उसकी एक-एक गलियां, एक-एक चौबारे देखे से लग रहे थे. अलीगढ़ के रास्ते में मैने 'स्मृतियों की पूरी एक फिल्म देख ली. सफर में बचपन की वो यादें ताजा हो गई, जिनका ताल्लुक अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्याल से था. दरअसल यह मेरे सपनों का सफर था. जानते हैं, मैं बहुत सपने देखता हूं दिन में भी और हां खुली आंखों से भी. करीब 15 साल पहले जब मैं किशोर था, तब एक सपना देखा करता था. और उस सपने में अलीगढ़ हुआ करता था.
यही वजह थी जब साप्ताहिक बैठक में सुतनु सर ने अलीगढ़ में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैय्यद अहमद पर आयोजित सेमिनार में हिस्सा लेने वालों के बारे में पूछा तो सबसे पहले मेरा ही हाथ उठा. हाथ उठाने की वजह थी मेरे बचपन का दोस्त नदीम जावेद. मैं और नदीम बचपन में उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के शाहगंज स्थित सेंट थामस स्कूल में पढ़ा करते थे. बचपन के दोस्त से कैसा गहरा रिश्ता होता है, आप इसे समझते ही होंगे. इस छोटे से कस्बे को हम लूना पर बैठ कर दिन में कई बार नाप लेते थे. स्कूल की कैंटीन हो या फिर मुन्नू की चाय की दुकान. नदीम के बगैर मजा नहीं आता था. 10वीं के बाद नदीम को अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में पढऩे के लिए भेज दिया गया और मैं दोस्त की जुदाई से अकेला रह गया. तब मैं सोचा करता था, काश मैं भी अलीगढ़ पढऩे के लिए जा पाता. अपने दोस्त से मिल पाता. उसके साथ खूब मस्ती मारता. लेकिन तब यह सुना था कि यहां तो केवल मुसलमानों के बच्चे ही पढ़ते हैं, लिहाजा मन मसोस कर रह जाता.
उस समय हमारे पूरे इलाके में अलीगढ़ विश्वविद्यालय की एक साख थी और माना जाता था कि जो बच्चा वहां दाखिला पा लेता था, वह फिर कुछ बन कर ही घर लौटता था. मुसलमान बच्चों के लिए तो अलीगढ़ बेहतरीन तालीम और कैरियर का मक्का था. जो भी सीनियर अलीगढ़ से छुट्टियों में घर आता, हम उससे अलीगढ़ विश्वविद्यालय के किस्से सुनते कि वहां पढ़ाई का कितना अच्छा माहौल है. बहुत बड़ी लाइब्रेरी है. किताबे मंगाने के लिए की शाहगंज की तरह ज्ञान पुस्तक भंडार के चक्कर नहीं लगाने पड़ते. सारी किताबें लाइब्रेरी में मिल जाती है. रात भर हॉस्टल के कमरों की लाइट जलती रहती है. यह भी सुनते कि पढ़ाई और अध्ययन का अलीगढ़ में ऐसा माहौल है कि कोई नाकाबिल बच्चा भी वहां जाकर अच्छे नंबर हासिल करने लगता है. अलीगढ़ की वजह से नदीम भी आज देश के सफल युवा नेता हैं. अलीगढ़ से छात्र राजनीति की शुरुआत कर वे एनएसयूआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष और यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव रहे. आज वे राहुल गांधी की टीम का हिस्सा हैं.
नदीम की यादों ने ही मुझे सपने में कई बार अलीगढ़ का सफर कराया. लेकिन जब मैने असल में अलीगढ़ की सफर किया तो सपने और हकीकत का अंतर नजर आया. सपने में मैं देखता कि विश्वविद्यालय में लड़कियां बुर्के में क्लास में आती और लड़के शेरवानी में. माहौल ऐसा सक्त की एक दूसरे से बात करना तो दूर, वे आपस में नजरे भी नहीं मिला सकते थे. और शिक्षक के रूप में मुझे लंबी दाढ़ी और उंचे अचकन वाले पजामे में गांव की मस्जिद के मौलवी साहब नजर आते. सब लोग उर्दू और फारसी में बात करते. अंग्रेजी से तो यहां कोई मतलब नहीं होगा. निकाह फिल्म ने सपने में देखे गए इन दृश्यों को और बल दिया.
लेकिन विश्वविद्यालय के परिसर में घुसते ही यह धारणा काफूर हो गई. यहां तो बुर्के और शेरवानी में लोग कम जींस और टी शर्ट ज्यादा नजर आए. लड़के-लड़कियों का झुंड देख कर बचपन की अपनी सोच पर खींझ आई. बचपन में मुझे यही पता था कि यहां सिर्फ मुसलिम छात्रों को ही दाखिला मिलता है, लेकिन यह क्या? यहां तो मैने कई छात्रों को हाथों में कलावा बांधे देखा. और अपने सेमिनार में मॉड प्रोफेसर शकील अहमद समदानी साहब से मिलकर और हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी मिश्रित उनके व्याख्यान को सुन कर तो शिक्षक की मौलवी साहब वाली छवि भी काफूर हो गई. परिसर में घूमते हुए यह एहसास हुआ की अलीगढ़ विश्वविद्यालय में कुछ तो अलग है. यहां का शैक्षणिक माहौल, यहां के पढ़ाकू छात्र. यहां के विद्वान शिक्षक, यहां के सेमिनार रूम. यहां के बहस-मुहाबिसे. यहां की पुरानी नक्काशी वाली मुगलई डिजाइन की खूबसूरत इमारतें. ऊंची और लंबी सीढिय़ा, छात्रावास, बेतरतीब झाडिय़ां, यहां की तहजीब, यहां की रवानगी, यहां के परिसर में घुली मस्ती, और शाम की अजान. इसे दूसरे विश्वविद्यालयों से जुदा करती है.
Sunday, 23 October 2011
Wednesday, 5 October 2011
सलवा जुडूम की खामोश विदाई
नक्सल समस्या से जूझने के लिए तैयार की गयी सलवा जुडूम नाम की सामाजिक दीवार का इस तरह धीरे-धीरे धसक जाना बहुत ही निराशा-जनक है. यदपि यह भी सत्य है कि, इसकी बुनियाद बहुत ही कमजोर थी. अधिकृत रूप से सन 2005 में सरकार द्वारा शुरू किये जाने के बाद से ही ये विवादास्पद रही है और ये विवाद ही इसको सतत रूप से कमजोर करते रहे, जबकि ये प्रयास निसंदेह अच्छा था.
पंकज चतुर्वेदी
नक्सल प्रभावित राज्यों उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में अब यह बिलकुल स्पष्ट हो गया है कि नक्सल समस्या सिर्फ कानून व्यवस्था के विरुद्ध जन आक्रोश नहीं है, अपितु ये एक ऐसा गंभीर रोग है जो सामाजिक आर्थिक विषमताओं से उत्पन हुआ है और जिसकी अनदेखी और इलाज में लापरवाही से आज ये इतना घातक हो गया है की इसने देश में अन्य समस्यों और संकटों को पीछे छोड़ दिया है. इसकी गिरफ्त में इन उल्लेखित राज्यों की एक बड़ी आबादी आ चुकी है.
छत्तीसगढ़ नें इस समस्या से जूझने और निपटने की पहल करते हुए सन 1991 में 'जन-जागरण अभियानÓ जैसे आंदोलन की शुरुआत की प्रारंभिक तौर पर इस मुहिम से कांग्रेस के नेता और कांग्रेस की विचारधारा को मानने वाले लोग जुड़े, जिन्होंने अपने सामने महात्मा गाँधी के सिद्धांतों और सोच को रखा और इस सामाजिक अभियान को गति देने का प्रयास किया. इस अभियान में स्थानीय व्यापारियों एवं उद्योगपतियों ने भी भाग लिया बीजापुर, दंतेवाडा, कटरैली जैसे नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में इसे खासी लोकप्रियता भी मिली, किन्तु धीरे-धीरे नक्सल आतंक से घबराकर लोगों ने इससे किनारा कर लिया.
सलवा जुडूम और नक्सल वादियों के झगड़े में बस्तर संभाग के छह सौ से ज्यादा आदिवासी गांव खाली हो गए और लगभग साठ से सत्तर हजार आदिवासी पलायन कर सरकारी कैम्पों में रहने को मजबूर हो गए. इस सारी क्रिया एवं प्रतिक्रिया में दोनों पक्षों से बहुत खून भी बहा, नक्सल वादियों को तो खून खराबे से फर्क नहीं पड़ा, पर आम आदिवासी समुदाय के लोग इस सब से अंदर से टूट गए और इस तरह से सलवा जुडूम अपने अंत की ओर अग्रसर हुआ.
इस अभियान के प्रारंभ में तो सरकार को ऐसा लगा कि उसके हाथ में नक्सल समस्या का अचूक इलाज लग गया है. प्रारंभिक स्थितियों से ऐसी आस बंधी थी कि अब इस अभियान को जन अभियान सा दर्जा मिल जायेगा. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका, कुछ ऐसे भी हालात बने की सलवा जुडूम से जुड़े कार्यकर्ताओ ने अपना ठिकाना और आस्था बदल कर सरकारी हथियारों सहित नक्सल वादियों का हाथ थाम लिया. जब एक लंबे समय के बाद भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिलें तो इन परिणामों के अभाव में राज्य सरकार को अंतत: इस अभियान को अधिकृत रूप से बंद करने की घोषणा करनी पड़ी. राज नेताओं के बयानों पर बड़े-बड़े संवाद और विवाद करने वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया और इन्ही बयानों पर सम्पादकीय लिखने वाला प्रिंट मीडिया दोनों ही ने सलवा जुडूम के गुजर जाने की महत्वपूर्ण घटना को उतनी तवज्जों नहीं दी. शायद देश के आम आदिवासी की जिंदगी और मौत से जुड़ी ये नक्सल समस्या राजनेताओं के बयानों से बहुत छोटी और कम महत्व की है.
सलवा जुडूम या इसके पूर्ववर्ती जन आंदोलनों की विफलता से ये महत्वपूर्ण प्रश्न अब फिर सामने है, कि पूरी ताकत से जोर लगा रहे इस नक्सलवाद के इस विक्राल दानव से अब कैसे निपटा जाये? अब तक भारत की पुलिस और अर्धसैनिक बलों की रणनीतियां और कुर्बानियां इस लाल आतंक के सामने कमजोर पड़ कर मानसिक रूप से लगभग परास्त सी हो चुकी है! छत्तीसगढ़ के कुछ लोगो ने एक बार फिर एक नए गांधीवादी जन आंदोलन का फिर श्री गणेश किया है लेकिन क्या अब हम इस नक्सल वाद की आंधी को गाँधी के सिद्धांतों से रोक पाएंगे? या फिर कुछ और राह चुननी होगी परन्तु इस यक्ष प्रश्न का उत्तर अभी किसी के पास भी नहीं है ना केंद्र सरकार और नहीं इस लाल आतंक से जूझती इन राज्यों की आम जनता और वहां की सरकार.
Tuesday, 4 October 2011
संपादकीय हिसार के दंगल में जाने से पहले
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Monday, 28 February 2011
हवा में लटकी हवाई सेवा
नदीम अंसारी
पंजाब की आर्थिक राजधानी लुधियाना से तकरीबन पांच किमी दूर जीटी रोड स्थित साहनेवाल एयरपोर्ट की हवाई सेवा तकनीकी दिक्कतों के चलते हवा में लटकी है। इसी साल 13 मई को इस हवाई अड्डे से अर्से बाद फिर से घरेलू उड़ाने शुरु हुई थीं। इसकी औपचारिक शुरुआत एयर इंडिया के दिल्ली से आए विमान ने एयरपोर्ट का रनवे चूमकर की थी। हालांकि च्अपशगुनज् उसी दिन पहली फ्लाइट तकनीकी कारण से आधे घंटे देरी से पहुंचने से हो गया था। कुल मिलाकर अभी तक तकनीकी दिक्कतों के ही चलते अकसर हवाई सेवा बाधित रहती हैं।
यहां हवाई सेवा उपलब्ध करा रही एयर इंडिया को अक्तूबर में ही 43 में से 21 उड़ाने तकनीकी कारणों से रद्द करनी पड़ीं। असली दिक्कत रनवे पर अत्याधुनिक सुविधाओं की कमी से है। एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के स्थानीय प्रतिनिधि शुरुआती दौर में ही नागरिक उड्डयन मंत्रालय व वरिष्ठ अधिकारियों को इस बाबत आगाह कर चुके हैं। हकीकत में अफरातफरी के आलम में यहां से घरेलू उड़ान सेवा शुरु करते वक्त तकनीकी दिक्कतों को पहले हल करने की नहीं सोची गई। माहिरों के मुताबिक रनवे पर विमान उतारने के लिए कम से कम पांच किमी की विजीबिलिटी (दृश्यता) चाहिए, वरना हादसे का खतरा रहता है। अधिक दृश्यता के लिए डॉप्लर वेरी-हाई फ्रिक्वेंसी ओमनीडाइरेक्शनल रेंज (डीवीओआर) व इंस्ट्रूमेंट लैंडिंग सिस्टम (आईएलएस) लगते हैं। जिनसे विमान को धुंध में भी रास्ता दिखता है।
एयरपोर्ट अथॉरिटी सूत्रों की मानें तो शुरुआत में ही इस बाबत सरकार को प्रस्ताव भेजा गया था। साथ ही यह सिस्टम लगाने को स्थानीय प्रबंधन ने अथॉरिटी को भी कई पत्र लिखे। फिलवक्त सर्दी के साथ धुंध बढऩी है, इससे और ज्यादा उड़ाने रद्द होने की आशंका रहेगी। मुमकिन है कि खतरा न मोल लेते हुए एयर इंडिया के पायलट हाथ खड़े कर विमान भी रनवे पर खड़े कर सकते हैं। दोहरी दिक्कत, इसी एयरपोर्ट से बीते दिनों किंगफिशर द्वारा शुरु की गई हवाई सेवा भी तकनीकी दिक्कतों के चलते अब स्थगित है। फिलहाल इस एयरपोर्ट से सात में से चार दिन दिल्ली-लुधियाना के बीच हवाई सेवा सुविधा उपलब्ध है। जबकि हफ्ते के बाकी तीन दिन दिल्ली-लुधियाना-पठानकोट के बीच उड़ान का शैड्यूल है। आए दिन उड़ाने रद्द होने से अक्सर कारोबारी सिलसिले में दिल्ली व लुधियाना के बीच हवाई सफर करने वाले व्यापारी-उद्यमी परेशान हैं।
उधर, एयरपोर्ट अथॉरिटी के स्थानीय मैनेजर वीपी जैन का दावा है कि जल्द ही तकनीकी समस्या हल हो जाएगी। अथॉरिटी के चेयरमैन वीपी अग्रवाल ने इस बाबत आश्वासन पत्र भेज चुके हैं। डीवीओआर व आईएलएस सिस्टम लगाने की प्रक्रिया जल्द शुरु होगी, दिल्ली से उपकरण पहुंचने वाले हैं। वह यह तो मानते हैं कि इस सिस्टम को लगने में वक्त लगेगा। जहां तक किंगफिशर की सेवा फिर से शुरु होने का मामला है तो कंपनी इस एयरपोर्ट पर उतर सकने वाले छोटे विमान जल्द उपलब्ध कराने का भरोसा दिला रही है। वहीं माहिरों की नजर में सबकुछ सरकारी लेटलतीफी का नतीजा है। पहले राज्य सरकार ने ही जमीन देरी से मुहैया कराई। फिर देरी से आए उपकरण अब लगने में ही तीन महीने लेंगे। ऐेसे में इस सर्दी के दौरान तो अमूमन उड़ाने रद्द होने पर यात्री बैरंग लौटेंगे।
इस मामले में राजनीतिक दलों के बीच चली क्रेडिट-वार की बाबत स्थानीय सांसद व कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी कहते हैं कि कांग्रेस कहने नहीं, बल्कि करने में यकीन रखती है। वह दलील देते हैं कि बीते लोकसभा चुनाव में जनता से किए वादे के मुताबिक साहनेवाल एयरपोर्ट से घरेलू उड़ान सेवा शुरु कराई। इसके लिए उन्होंने दिल्ली तक भागदौड़ कर चुनाव के ठीक एक साल बाद वादे पर अमल किया। फिर यहां से किंगफिशर की उड़ान के लिए भी प्रयास किया। अब एयरपोर्ट पर बनी तकनीकी दिक्कतें दूर कराने को प्रयासरत हैं। विपक्ष के आरोपों पर मनीष पलटवार करते हैं कि सूबे के सत्ताधारी अकाली-भाजपा गठबंधन की फितरत हमेशा दूसरे के कामों का श्रेय लेने की रही है। दूसरी तरफ, इस मामले में दखल रखने वाले मुख्य संसदीय सचिव हरीश राय ढांडा भी तीखा पलटवार कर तर्क देते हैं कि मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने ही कई साल पहले विभागीय अधिकारियों से संपर्क कर इस मामले की जमीन तैयार की थी। कांग्रेसियों को तो पकी पकाई खीर खाने की आदत पड़ी है। वरना अर्से से बंद पड़ी घरेलू उड़ान सेवा केंद्र व राज्य में सत्ताधारी रहते कांग्रेस पहले ही क्यों शुरु करा पाई।
इस सबसे अलग जूतों के व्यापारी हरविंदर सिंह राजू रोष जताते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री तक पंजाबी हैं और आम पंजाबी हवाई सेवा को तरस रहे हैं। कुछ ऐसी ही नाराजगी जताते अनीस खान बताते हैं कि ट्रैवल एजेंट होने के नाते उन्हें अक्सर अचानक दिल्ली जाता होता है। साहनेवाल से अमूमन फ्लाइट रद्द होने की वजह से ट्रेन या निजी वाहन का सहारा लेना पड़ता है। याद रहे कि साहनेवाल से हवाई सेवा शुरु होते वक्त इसका क्रेडिट लेने को सियासी धींगामुश्ती हुई थी। पहली फ्लाइट में दिल्ली से पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल अकाली जत्था लेकर आए थे। जबकि कांग्रेसी टीम सांसद मनीष तिवारी की अगुवाई में पहुंची थी। तब दोनों ही पक्षों ने इसका क्रेडिट लेते तमाम दावे किए थे।
च्कांग्रेस के कैप्टन ने दिखाया जलवा
नदीम अंसारी
पंजाब की जट्ट राजनीति पर गहरी पकड़ रखने वाले सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह एक बार फिर नई सियासी इबारत गढऩे में जुटे हैं। दोबारा पंजाब कांग्रेस की कमान संभालने वाले कैप्टन ने शक्ति के प्रतीक हनुमान जी के शुभ दिन मंगलवार यानि 9 नवंबर को अपनी सियासी ताकत दिखा दी। पंजाब कांग्रेस के कैप्टन ने शाही अंदाज में गुरुनगरी अमृतसर पहुंचकर श्री दरबार साहिब में माथा टेककर शुक्राना अरदास की। सूबे के सत्ताधारी अकाली-भाजपा गठबंधन को पूरी सियासी धमक दिखाते हुए उन्होंने दो-दो हाथ करने के लिए भी ललकारा। राज्य की सत्ता खोने के बाद कैप्टन जैसी रहनुमाई से महरुम जो कांग्रेसी गुटबाजी के रोग से बेजान पड़े थे, महाराजा के ललकारे से उनमें भी जान आ गई।
वैसे तो पंजाब कांग्रेस के प्रधान बतौर कैप्टन की ताजपोशी रस्मी तौर पर 12 नवंबर को चंडीगढ़ में रखी गई। बेशक उसकी भी सियासी नजरिए से खासी अहमियत सूबे के राजनेताओं के लिए है। फिर भी उसकी तुलना में कैप्टन के प्रधान बनने के बाद उनके पहले अमृतसर आगमन को विशुद्ध राजनीतिक चश्मे से आंका गया। यहां एक जिक्र निहायत जरुरी है कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल पर उनके सहपाठी कैप्टन अमरिंदर ने कभी कांग्रेस का दामन थामा था। फिर ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान श्री दरबार साहिब में सैन्य कारवाई के खिलाफ मजहबी मुद्दा बना कैप्टन कांग्रेस छोड़ गए थे। सूबे में सियासत और मजहब के बीच गहरा नाता होने की वजह से ही एक बड़े तबके ने तब कैप्टन को हाथो हाथ लिया। तब अकालियों ने भी सुनहरा मौका जान उनको अपनी गोद में बिठा लिया। मगर फौजी अफसर रहे कैप्टन अक्खड़ मिजाज होने के साथ ही शाही अंदाज भी रखते हैं। लिहाजा अकालियों की हावी होने वाली फितरत उन्हें रास नहीं आई और कैप्टन ने उनकी पार्टी से भी पल्ला झाड़ लिया। फौजी अंदाज में दुश्मन को सबक सिखाने के कायल कैप्टन ने एक बार फिर मजहबी दांव चला। उन्होंने पंथक राजनीति करने वाले अकालियों के खिलाफ वैसी ही एक पार्टी खड़ी कर दी। कैप्टन और अकालियों के बीच असली सियासी अदावत यहीं से शुरु हुई।
बहरहाल कैप्टन की पंथक पार्टी से अकालियों को कितना सियासी नुकसान हुआ, यह दीगर पहलू है। असल बात उनका यह मजहबी दांव कांग्रेस को रास आया और पंथक पार्टी वाले कैप्टन को एक बार फिर कांग्रेसियों ने मना कर च्गांधीवादीज् बना लिया। फिर तो पूरे रंग में आए कैप्टन ने ताल ठोककर अकालियों को ललकारा और पंथक राजनीति पर कब्जे के लिए खूब सियासी दांव चले। पंजाब कांग्रेस के प्रधान, फिर राज्य के मुख्यमंत्री और बाद के राजनीतिक संकटकाल में भी वह धर्म की राजनीति के मुद्दे पर अकालियों को लगातार चुनौती देते रहे। सिख समुदाय के लिए सबसे महत्वपूर्ण एसजीपीसी चुनाव सामने हैं। एसजीपीसी यानि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी पर अकालियों का कब्जा है। इसका सीधा असर विधानसभा और लोकसभा चुनाव के दौरान भी राज्य में देखने को मिलता है। इससे बाखूबी वाकिफ कैप्टन फिर एसजीपीसी चुनाव में लगातार दखल देने को प्रयासरत हैं। भले ही पार्टी हाईकमान के तेवर देख बाकी कांग्रेसी इस मुद्दे पर गोलमोल स्टैंड ले गए। अब कैप्टन का अमृतसर जाकर अपनी सियासी धमक दिखाना जितना अहम माना जा रहा है, उससे कई ज्यादा श्री दरबार साहिब में उनकी हाजिरी पंथक सियासत को हिलाए हुए है। जानकारों की मानें तो अंदरखाने कैप्टन दूसरे मोर्चे पर दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के प्रधान सरना और हरियाणा के पंथक नेता झींडा जैसों के जरिए भी अकालियों को मजहबी मुद्दे पर लगातार परेशान करा रहे हैं।
एक दिलचस्प पहलू भाजपा कोटे से अमृतसर के सांसद नवजोत सिंह सिद्धू वाक कला के बाजीगर कहलाते हैं। इसीलिए भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए का घटक शिरोमणि अकाली दल (बादल) भी उनको अपना स्टार प्रचारक मानता है। मगर पिछले लोस चुनाव में पंजाब के लिए कांग्रेस के स्टार प्रचारक रहे कैप्टन अब अमृतसर पहुंचे तो सिद्धू सरीखों की भी आवाज नहीं निकली। इससे साफ राजनीतिक संदेश गया कि कांग्रेस के पास कैप्टन ऐसी दोधारी तलवार हैं, जो अकालियों के साथ भाजपा पर भी सियासी वार करने में माहिर हैं। वैसे भी सियासी खेल में माहिर कैप्टन वक्त और माहौल के मुताबिक दांव चलते हैं। मोटे तौर पर माझा, मालवा और दोआबा यानि तीन हिस्सों में बंटे पंजाब के सबसे मुख्य केंद्र अमृतसर पहुंचकर कैप्टन ने जो अपने सियासी पत्ते खोले, उसके पीछे दूरगामी योजना मानी गई। एयरपोर्ट से महज 14 किमी दूर श्री दरबार साहिब तक पहुंचने में उनको तकरीबन चार घंटे लग गए। वजह साफ थी, हजारों कांग्रेसी वर्करों ने सैंकड़ो जगह उनका शानदार स्वागत किया। वे बाकायदा च्अपने महाराजाज् को शाही अंदाज में ही हाथी, घोड़े और ऊंट के भारी लाव-लशकर के साथ लेकर चले। बस सही मौका देख जोश में आए कैप्टन ने च्बादलों से तो मैं निपट लूंगाज् कहते हुए विरोधियों को चुनौती देने के साथ पार्टी वर्करों का हौंसला भी बढ़ाया।
यहां काबिलेजिक्र है कि फिलवक्त तमाम तरह की सियासी मुसीबतों में फंसे अकाली अब कैप्टन को लेकर भी खासे चिंतित हैं। मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की अगुवाई वाली पार्टी के मुखिया अब उनके बेटे सुखबीर बादल हैं। उपमुख्यमंत्री सुखबीर भी कमोबेश कैप्टन की तरह धमक दिखाने के चक्कर में पार्टी के तमाम वरिष्ठ और कर्मठ नेताओं-वर्करों को नाराज कर चुके हैं। उसी का नतीजा है कि मुख्यमंत्री बादल के सगे भतीजे मनप्रीत बादल ने बगावत का झंडा बुलंद किया और वित्तमंत्री पद से हाथ धो बैठे। आजकल विभीषण बने घूम रहे मनप्रीत शिरोमणि अकाली दल रुपी लंका के दहन का मंसूबा पाले हैं। दूसरी तरफ कभी कैप्टन के नजदीकी रहे विधानसभा के तत्कालीन डिप्टी स्पीकर बीर दविंदर सिंह अकालियों की गोद में जा बैठे थे, वे भी बागी हो गए। ऐसे में शिअद को बादलों की पार्टी बताने वाले बागियों और विरोधियों के आरोप दमदार लगने लगे हैं। रही बात सत्ता के साझीदारों की तो अकालियों के भाजपा नेताओं से भी बहुत मधुर रिश्ते नहीं हैं। सियासत के मंझे खिलाड़ी रहे मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल पहले ही हालात को भांप चुके थे। लिहाजा उन्होंने निजी तौर पर कैप्टन और यूपीए चेयरपरसन सोनिया गांधी के खिलाफ दर्ज कराए मानहानि के मुकदमें तक वापिस ले लिए। साथ ही विधानसभा में ऐलानिया वादा किया कि वह बदले की सियासत के कायल नहीं हैं।
इस सबके बावजूद कैप्टन ने बादल के जज्बाती दांव में भी सियासत परखते हुए साफ ऐलान कर डाला कि उन्हें रहम की भीख नहीं चाहिए। अपने खिलाफ चर्चित सिटी सैंटर घोटाले जैसे मामले वह वकीलों के जरिए निपट लेंगे और उन्हें अदालत से इंसाफ की पूरी उम्मीद है। लगे हाथों कैप्टन ने पहले राज्य सरकार से हजारों पार्टी वर्करों पर दर्ज मुकदमें वापिस लेने की शर्त रख असली दांव चलते हुए तमाम कांग्रेसियों का दिल भी जीत लिया। आम अकालियों की नजर में भी उनकी पार्टी के झंडाबरदार बादल पिता-पुत्र का रवैया लचीला और हताश करने वाला है। जबकि गुटबाजी और नेृत्तवहीनता से लंबे समय निराश रहे आम कांग्रेसियों की निगाह में कैप्टन जुझारू नेता हैं। जो अपनी विधानसभा सदस्यता खोने के मामले में भी कानूनी लड़ाई लड़कर जीते तो दूसरी तरफ उन्होंने अपनी पार्टी में ही विरोधियों को शिकस्त दी। अब किसानों की समस्याएं उठाकर वह अकालियों के असली वोट-बैंक में सेंध लगा रहे हैं। दूसरी ओर आर्थिक मुद्दे पर राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा कर भाजपा के शहरी वोट-बैंक को भी खींचने में लगे हैं। रही बात राजनीति में धर्म के घालमेल की तो इस मामले में भी कैप्टन अकालियों को उन्हीं के हथियार से मारने का रास्ता तैयार कर रहे हैं। लब्बोलुआब, कांग्रेसी तो क्या दूसरी पार्टियों के नेता और हिमायती भी इस बात के कायल हैं कि कैप्टन का अंदाज जुदा है। पंजाब में उनकी तरह अकालियों से निपटने की कुव्वत न तो पूर्व मुख्यमंत्री राजिंदर कौर भट्ठल में है और न ही पंजाब कांग्रेस के पूर्व प्रधान मोहिंदर सिंह केपी व शमशेर सिंह दूलों सरीखे नेताओं में। रही बात पूर्व सांसद जगमीत सिंह बराड़ की तो उनके जैसे बुद्धिजीवी नेता कांग्रेस की राष्ट्रीय कमेटी के लिए ही मुफीद हैं।
जोश में दब गई गुटबाजी
पंजाब में कांग्रेसियो की गुटबाजी भी जगजाहिर है, लेकिन पार्टी के प्रदेश प्रधान कैप्टन अमरिंदर सिंह इस पर पर्दा डालने के भी माहिर हैं। वह अमृतसर पहुंचे तो जाहिर तौर पर वर्करों में जोश आया और उसी रेलमपेल में गुटबाजी के नजारे भी दब गए। बेशक ऐसे नजारे निहायत संजीदा थे, मगर सियासी रिवायत के मुताबिक जनशक्ति हमेशा विरोध-रोष पर भारी पड़ती है। जब अमृतसर में कैप्टन का काफिला श्री दरबार साहिब के लिए रवाना हुआ तो उनके शानदार सजे वाहन पर चढऩे के लिए वरिष्ठ कांग्रेसियों तक में मारपीट हो गई। पूर्व सांसद राणा गुरजीत सिंह ने तैश में आकर चार बार विधायक रहे ओपी सोनी को मारने के लिए हाथ तक उठा दिया। यह सब देख रहे कैप्टन ने इसे भी खूबसूरती से नया मोड़ देते हुए कांग्रेस की ताकत करार दिया। यहां याद दिला दें कि जब कैप्टन पिछली बार पंजाब कांग्रेस के प्रधान थे तो विधानसभा चुनाव से पहले लुधियाना में उन्होंने जोरदार रैली की थी। जिसमें वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हरनामदास जौहर और गुरचरण सिंह गालिब के बीच मंच पर ही जुतमपैजार हो गई थी। तब भी कैप्टन ने इसे पार्टी की ताकत का नतीजा बताते हुए कमजोरी पर पर्दा डाला था। उसके बाद सत्ता पलटी और कांग्रेस की सरकार आने पर कैप्टन मुख्यमंत्री बने। लिहाजा सारी गलतियों पर पर्दा पर गया।
Tuesday, 1 February 2011
सहिष्णुता खोता देश और जातिवाद
थल सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह के गांव बापोड़ा में ग्रामीणों ने एक बार फिर लोकतंत्र को हरा दिया. गांव के लोगों ने मतदान का दूसरी बार बहिष्कार किया है. कारण सुनेंगे तो सन्न रह जाएंगे. यहां की पंचायत में सरपंच का पद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. पंच नहीं चाहते कि उनका सरपंच कोई अनुसूचित जाति का हो. आजादी के 6 दशकों बाद उस भारत में जातिवाद की जड़ें इतनी गहरी हैं जो अमेरिका जैसे देश को आंख दिखाने की कूवत रखता है.अनुसूचित जाति के लोगों को सिर्फ नीचा दिखाने के लिए इतनी घिनौनी हरकतें देश में हो रही हैं जो किसी भी तरक्कीपसंद मुल्क के लिए शर्मनाक कही जा सकती हैं हाल की घटना में नारनौल के साथ लगते एक गांव में दलित युवक को शादी में घोड़ी पर बैठने की मनाही कर दी गई। घोड़ी पर बैठने के लिए पुलिस बुलानी पड़ी. फैजाबाद में दो दलित युवतियों को निर्वस्त्र करके गांव में घुमाया गया. मामूली सी बात पर दलित व्यक्ति का कत्ल हो गया.वसुधैव कुटुंबकम की बात करने वाले भारत में इस तरह की घटनाएं होना देश के लिए अपमानजनक नहीं तो और क्या है? हरियाणा प्रदेश में कभी दुलीना, कभी हरसौला, कभी मिर्चपुर जैसे कांड क्यों हो जाते हैं. जाहिर सी बात है कि सरकार गंभीर नहीं है और न ही दमदार है. अन्यथा पंचायतों में इतनी ताकत नहीं होती कि वह अधिकार प्राप्त सरकार के सामने खड़ी हो जाएं. ऑनर किलिंग हो रही हैं, तुगलकी फरमानों के आगे लोगों के अधिकार गौण हो चुके हैंं. खाप पंचायतें जो कभी आपसी सौहार्द की प्रतीक मानी जाती थीं आज लोगों की जान लेने पर आमादा हैं. कहना न होगा कि जिन अनुसूचित जातियों के लोगों को देश में अपमानित किया जाता है, जिनकी इज्जत से खिलवाड़ किया जाता है, उन्हीं की कुर्बानियों को यह देश सज़दा करता आया है. कौन भूल सकता है रानी झांसी की जगह पीठ पर बालक को बांधकर अंग्रेज के सामने तलवार लहराने वाली झलकारी बाई को, या कौन भूल सकता है शिवाजी मराठा की तेग को. साहूजी महाराज, नारायणा गुरू, डॉ. भीमराव अंबेडकर, महात्मा ज्योतिबा फूले, रविदास, कबीर, सदना और पेरियार को. कानून मंत्री के रूप में अंबेडकर को कौन भूल जाएगा जिन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए अपने पद से त्यागपत्र तक की पेशकश कर दी थी या फिर दलित समाज में जन्मे बाबू जगजीवन राम को जिन्होंने कृषि मंत्री रहते हुए बरसों से सूखा झेल रहे देश की उदरक्षुधा शांत करने के लिए महत्वपूर्ण काम किया और रक्षा मंत्री रहते हुए यह कहने की हिम्मत जुटाई कि अगर पाकिस्तान भारत पर युद्ध थोपता है तो भारत की सेना पाकिस्तान के अंदर जाकर लड़ेगी. और जिन्होंने ऐसा करके भी दिखाया. यह देश वाल्मीकि की लिखी रामायण का सम्मान तो करता है लेकिन वाल्मीकि समाज को घृणा से देखता है. यह वेदव्यास की लिखी महाभारत पर तो भरोसा करता है लेकिन दलित समाज में जन्मे वेदव्यास को याद नहीं करता. यह अंबेडकर के लिखे संविधान को तो मानता है लेकिन अंबेडकर को नहीं. गहरे अतीत में न भी जाएं तो दस्तावेज गवाही भरते हैं कि देश में इतने बड़े-बड़े घोटालों के बीच आज तक किसी दलित जाति के नेता या अधिकारी का नाम शुमार नहीं है. इतनी बड़ी आबादी के लोग जो देश को विकास की मुख्यधारा में जोडऩे के लिए कड़ी का काम कर रहे हैं उनके साथ अपमानजनक व्यवहार एक समृद्ध संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं वाले देश के लिए कतई न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता.
-राजकमल कटारिया
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