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राजकमल कटारिया

Raj Kamal Kataria

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Sunday, 21 November 2010

भगत सिंह: एक विचारशील क्रांतिकारी

भगत सिंह को एक महान देशभक्त के रूप में याद किया जाता है किंतु वे एक महान विचारक भी थे, यह तथ्य प्राय: गौण रहा है। वास्तव में उनके विचारों ने आजादी के सही अर्थों को रेखांकित किया। वे देश की स्वतंत्रता के साथ सामाजिक क्रांति का सपना संयोए थे। वे ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जो शोषण, गरीबी, अशिक्षा, जाति-संप्रदाय-रूढि़वाद से मुक्त हो। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं।
भगत सिंह और उनके साथियों ने 1928 में 'हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ में 'समाजवादी शब्द जोड़कर इतिहास को एक ऐसा मोड़ देने का प्रयत्न किया था जिसे यदि तत्कालीन राजनीतिक पार्टियों का समर्थन प्राप्त हो जाता तो देश 1947में केवल राजनीतिक आजादी हासिल करके ही चुप न बैठ जाता। आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए भी महत्वपूर्ण कदम उठाए गए होते। विदेशियों की गुलामी और देश की सरकार द्वारा अपनी ही जनता पर थोपी गई समाजार्थिक गुलामी में विशेष अंतर नहीं होता। दोनों हालतों में आम आदमी की स्थिति दयनीय होती है और एक बेहतर साज की परिकल्पना आकाशकुसुम बनी रहती है।
अमृतसर में अप्रैल 1928 में 'नौजवान भारत सभा द्वारा एक प्रस्ताव पारित किया गया था। भगत सिंह सभा के महासचिव थे। प्रस्ताव में कहा गया था, '....लोगों को यह महसूस कराने की जरूरत है कि भावी क्रांति का अर्थ सिर्फ शासकों की तबदीली ही नहीं होगा। सबसे बढ़कर इसका अर्थ होगा, एक बिल्कुल नए ढांचे पर एक नए राजतंत्र की स्थापना करना। यह एक दिन या एक साल का काम नहीं है। कई दशकों के महान बलिदान ही जनता को इस महान कार्य को संपन्न करने के लिए तैयार कर सकते हैं और सिर्फ क्रांतिकारी युवकों को ही इसे करना होगा। पर यह जरूरी नहीं कि बम और पिस्तौल वाला आदमी ही क्रांतिकारी हो।
इससे दो बातें बहुत साफ हो जाती हैं-एक,क्रांति का अर्थ मात्र सत्ता परिवर्तन नहीं होता। उसका लक्ष्य एक पूरी व्यवस्था को बदलना होता है। दो,भगत सिंह आतंकवादी नहीं थे-हिंसा या बम-पिस्तौल की तुलना में वे विचार को अधिक मूल्यवान और पुरअसर समझते थे। शुरू में वे जरूर रोमांटिक क्रांतिकारी रहे लेकिन अध्ययनशीलता ने उन्हें समाजवादी क्रांतिकारी बना दिया। उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि क्रांति का नाटक रूमानियत के बोदे मंच पर नहीं खेला जा सकता। उसे विचार की पुख्ता धरती की जरूरत होती है।
भगत सिंह ने अपने इने-गिने वर्षों में जिंदगी और समाज के अनेक पहलुओं को गौर से उलट-पलट कर देखा। राजनीति, दर्शन, धर्म, भाषा, साहित्य, इतिहास, समाज विज्ञान आदि अनेक विषय उनके अध्ययन के केंद्र में रहे। उन्होंने न केवल इन विषयों का अध्ययन मनन किया, इन पर बहुत कुछ लिखा भी। उनका पहला लेख 'हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा 1923-24 में 'पंजाब की भाषा और लिपि विषय पर आयोजित निबंध प्रतियोगिता के लिए लिखा गया था। भगत सिंह उस समय नेशनल कॉलेज के विद्यार्थी थे। उनका लेख प्रतियोगिता के सर्वोत्तम लेखों में शुमार किया गया। लेख का सार यह था कि राष्ट्रीय भावना के विकास और देश की उन्नति के लिए साहित्य का विकास जरूरी है, परंतु साहित्य के लिए भाषा की जरूरत है। भगत सिंह ने राष्ट्र भाषा के महत्व को स्वतंत्रता से पूर्व ही समझ लिया था। स्वतंत्र भारत उसे आज तक नहीं समझ पाया। तभी विदेशियों से हमें यह सुनना पड़ता है कि भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसकी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। लेख में कहा गया, '.... समस्त देश में एक भाषा, एक लिपि, एक साहित्य, एक आदर्श और इसे एक राष्ट्र बनाना होगा। इसके लिए सर्वप्रथम एक भाषा का होना जरूरी है।
'किरती'  के माह, जून 1928 के अंकों में उन्होंने 'सत्याग्रह, 'हड़तालें, 'धर्म और हमारी आजादी की जंगÓ आदि विषयों पर विचारोत्तेजक लेख लिखे। 'बम का दर्शन (जनवरी 1930), 'मैं नास्तिक क्यों हूं? (अक्तूबर 1930), 'ड्रीमलैंड की भूमिका (जनवरी 1931) उनके अन्य लेख हैं जो उन्हें क्रांतिकारी लेखक और विचारक का सम्मानित दर्जा देते हैं। इन्हीं दस्तावेजों के कारण देश के शहीदों की लंबी पंक्ति में वे बहुत कद्दावर हो उठते हैं और अलग ही दिखाई देते हैं।
भगत सिंह का चिंतन-मनन तर्क आधारित था। तर्कशीलता के कारण ही वे आस्तिक से नास्तिक बने। उन्होंने लिखा-'प्रचलित विश्वास की एक-एक बात को तर्क सहित परखना-छांटना होगा। अगर कोई तर्क के आधार पर किसी सिद्धांत या आदर्श में विश्वास करने लगता है तो उसका विश्वास सराहनीय है। सिर्फ विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक है, ये दिमाग को कुंद बना देते हैं।....मेरा दृढ़ विश्वास है कि प्रकृति को चलाने वाली परमात्मा जैसी कोई सजग सत्ता नहीं। हमारा प्रकृति पर विश्वास है और समुचित प्रगति का लक्ष्य मनुष्य का प्रकृति के ऊपर अपनी सेवा के लिए कब्जा करना है। इसके पीछे कोई सजग चालक शक्ति नहीं है।
भगत सिंह के समकालीन कांग्रेसी तथा वाम विचारधारा के नेता उनके जीवनकाल में उन्हें नहीं समझ पाए। आज भी 28 सितंबर को उनकी जयंती और 23 मार्च को उनकी शहादत की रस्म अदायगी के अलावा वे भगत सिंह के प्रति गंभीर नहीं होते। उनकी नजर से समस्याओं को नहीं देखते, उन्हें हल करने की दिशा में कदम उठाना तो दूर की बात है। हालांकि भाषा, सांप्रदायिकता, समाजिक रूढि़वाद, धार्मिक कठमुल्लापन जैसी समस्याएं आज भी उतनी जटिल हैं और गंभीर, जितनी भगत सिंह के समय में थीं। माना कि क्रांति का तत्कालीन मूल मंत्र माक्र्सवाद जिसमें भगत सिंह को पूर्ण आस्था थी आज विश्व रंगमंच के नेपथ्य में चला गया है। उसकी वापसी यदि हुई तो उसमें से बहुत कुछ थोथा उड़ चुका होगा जो माक्र्सवाद के स्वरुप को बिगाडऩे का मुख्य कारक रहा। सारहीन वस्तु को न इतिहास ग्राह्य समझता है, न कुदरत उसे संजो कर रख सकती है। लेकिन ऊपर कहे गए अनेक मुद्दों के हल के लिए भगत सिंह आज भी प्रासंगिक जान पड़ते हैं। किसी चमत्कार को उनके साथ जोड़े बिना कहा जा सकता है कि वे भविष्यदृष्टा भी थे। फांसी से पहले अपनी अंतिम भेंट में उन्होंने कहा था: 'अंग्रेज की जड़ें हिल चुकी है , वे पंद्रह साल में चले जाएंगे, समझौता हो जाएगा। पर उससे जनता का कोई लाभ नहीं होगा। काफी साल अफरातफरी में बीतेंगे। उसके बाद लोगों को मेरी याद आएगी।
उनकी भविष्यवाणी का एक-एक शब्द सही निकला। सही यह भी है कि भगत सिंह को भावना के स्तर पर याद करके हम निश्चिंत-निष्क्रिय हो उठते हैं जबकि जरूरत है विचार के धरातल पर मंथन की, अमल की। देखें समय की शिला पर भगत सिंह का नाम फिर से कौन उकेरेगा?

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