सुभाष गाताडे
निश्चित ही ऐसे काम में मुब्तिला लोगों पर हत्या या हत्या के प्रयास जैसी धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जाना चाहिए.
स्वास्थ्य मंत्री ने माना है कि देश में ड्रग ट्रायल के दौरान विगत तीन सालों में 1599 लोगों की मृत्यु हुई.
3. मरीजों से हासिल की गयी 'सहमति' भी विवादास्पद दिखाई पड़ती है.
अस्पताल में अपनी बीमारियों के इलाज के लिए पहुंचनेवाले गरीबों के शरीर पर देशी-बहुदेशीय कंपनियों द्वारा विकसित की जा रही दवाइयों का उनकी जानकारी और सहमति के बिना किया गया प्रयोग, जो उनके लिए प्राणघातक भी साबित हो सकता है, किस श्रेणी का अपराध कहा जा सकता है? निश्चित ही ऐसे काम में मुब्तिला लोगों पर हत्या या हत्या के प्रयास जैसी धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जाना चाहिए.
यह अलग बात है कि ऐसे कामों में प्रबुद्ध जनों की संलिप्तता के सामने आ रहे प्रमाणों के बावजूद ऐसे मसलों पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाती और आम तौर पर मामले को दफऩा दिया जाता है. मालूम हो कि पिछले दिनों लोकसभा में प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वास्थ्य मंत्री दिनेशचंद्र द्विवेदी ने इस विस्फ़ोटक तथ्य को उजागर किया कि यहां ड्रग ट्रायल के दौरान विगत तीन सालों में 1599 लोगों की मृत्यु हुई है. कहने का तात्पर्य है कि हर माह लगभग 42 लोग इसका शिकार हो रहे हैं.
बेरूखी का यह आलम है कि अहम खबर इलेक्ट्रोनिक मीडिया ही नहीं प्रिंट मीडिया में भी लगभग दबा दी गयी. दवा परीक्षण के मामले में किस हद तक दवा बनानेवाली बड़ी कंपनियों से लेकर स्वास्थ्य मंत्रालयों के नौकरशाहों, अस्पतालों, डॉक्टरों एवं समाजसेवा के नाम पर कायम तमाम एनजीओ के बीच अपवित्र गंठबंधन बना हुआ है, यह बात अब किसी से छिपी नहीं है.
लाजिम है इस मामले में जबरदस्त अपारदर्शिता भी बरती जाती है, जिसे ऊपर से ही शह मिलती है.पिछले कुछ समय से अखबारों की सूर्खियों में रहे एचपीवी वैक्िसन प्रोजेक्ट को ही लें, जिसके संबंध में गुजरात और आंध्र प्रदेश में तीस हजार ओदवासी किशोरियों पर, जिनकी उम्र 10 से 14 साल के बीच थी -चल रहे क्िलनिकल ट्रायल को अप्रैल माह में रोकना पड़ा था.
इस परीक्षण के अंतर्गत'गार्डसिलÓ (मर्क) और सर्वारिक्स (जीएसके) जैसी दवाओं का प्रयोग किया जा रहा था. रोकने की वजह यह थी क्योंकि यह पता चला था कि परीक्षण के लिए जिम्मेदार इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च तथा'पाथÓ(प्रोग्राम फ़ॉर एप्रोपिएट टेक्नोलॉजी एंड हेल्थ) द्वारा दवा परीक्षणों के संबंध में कायम नैतिक मानदंडों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन किया जा रहा था.
सर्वाइकल कैंसर रोकने के नाम पर जारी प्रस्तुत परीक्षण में प्रायोगिक दवा के दुष्परिणाम के चलते कुछ मौतों के भी समाचार आये थे. अब इस सिलसिले में ताजा समाचार यह है कि जब यह स्वयंसेवी समूह ने सूचना का अधिकार के तहत याचिका भेज कर यह जानना चाहा कि सर्वाइकल कैंसर रोकने के नाम पर इन कंपनियों के किस आधार पर परीक्षण की अनुमति दी गयी तथा उसका प्रोटोकोल क्या था.
तब उसे ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया के कार्यालय से यही जवाब मिला कि 'यह एक ट्रेड सिक्रेट है और तीसरी पार्टी के व्यवसायिक विश्वास का प्रश्न है, लिहाजा इसके बारे में जानकारी नहीं दी जा सकती.Ó (आरटीआइ एक्ट नॉट ऐप्लकेबल टू एचपीवी वैक्िसन प्रोजेक्ट, द हिंदू, 9 अगस्त 2010). गौरतलब है कि यह आउटसोर्सिग- यानी काम को अंजाम देने के लिए बाहर के स्रोत ढूढऩा- का जमाना है.
जाहिर बड़ी-बड़ी बहुदेशीय दवा कंपनियों द्वारा अपनी नयी दवाओं के परीक्षण का बोझ तीसरी दुनिया के मुल्कों की जनता पर छोडऩे के मामले में कुछ भी अनोखा नहीं है. मुंबई में पिछले साल आयोजित पहले इंडिया फ़ार्मा सम्मिट में इससे जुड़ी तमाम बातें सामने आयीं थीं. यह बात स्पष्ट हुई थी कि स्वास्थ प्रणाली की खामियों के चलते ऐसे प्रयोगों में वालंटियर बने लोगों की सुरक्षा का मसला अक्सर उपेक्षित ही रह जाता है, यहां तक कि मरीजों से हासिल की गयी'सहमतिÓभी विवादास्पद दिखाई पड़ती है.
यह अकारण नहीं कि ऐसे लोगों की सहज उपलब्धता के चलते, जो गैरजानकारी में नयी दवाओं का अपने शरीर पर प्रयोग करने के लिए तैयार रहते हैं, इन देशों की लचर स्वास्थ प्रणाली और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते आउटसोर्स किये गये चिकित्सीय परीक्षणों का बाजार- आज 12,000 हजार करोड़ रुपये से आगे निकल चुका है. वैसे गरीब मरीजों पर दवा परीक्षणों का काम कितना खुल कर चलता है, यह किस्सा मध्यप्रदेश के इंदौर के एक चर्चित अस्पताल में भी पिछले दिनों सामने आया.
मरीजों द्वारा एवं शहर के जागरूक वर्गो द्वारा जब इस संबंध में आवाज बुलंद की गयी तब ड्रग ट्रायल के आरोपों से घिरे डॉक्टरों की तरफ़ से शहर के एक अग्रणी होटल में एक विचारगोष्ठी का आयोजन किया गया. इसका मकसद कथित तौर पर लोगों को यह बताना था कि ओखर ड्रग ट्रायल क्या होता है ओद. जब श्रोताओं ने इसमें शामिल रहे डॉक्टरों से यह पूछा कि आखिर'गरीब मरीजों पर ही क्यों ट्रायल किये?Óतब स्पष्ट था कि इन डॉक्टरों ने मौन साध लिया.मालूम हो कि आम हिंदुस्तानी का बड़ी-बड़ी कंपनियों की दवाइयों के लिए गिनीपिग (परीक्षण चूहे) बनने का सिलसिला कोई नया नहीं है.
सन 1997 में देश के प्रमुख कैंसर संस्थान'इंस्टीट्यूट फ़ॉर साइटॉलॉजी एंड प्रिवेन्टिव एनकोलोजीÓ के तहत चला एक अध्ययन काफ़ी विवाद का विषय बना था. पता चला था कि 1100 ऐसी स्त्रियां, जो सर्वाइकल डिसप्लेसिया (गर्भाशय के मुख पर कोशिकाओं के विकास) से पीडि़त थी, का इलाज केवल इसलिए नहीं किया गया ताकि बीमारी किस तरह बढ़ती है उसका अध्ययन किया जाये.
इसके बाद भी जब अस्वाभाविक बढ़त देखी गयी और सर्वाइकल कैंसर की संभावना महसूस की गयी तब भी न तो उन स्त्रियों को इसके बारे में चेतावनी दी गयी और न ही उनका इलाज किया गया, बल्कि परीक्षण चूहों की तरह उन पर परीक्षण जारी रहा. ज्यादा विचलित करनेवाली बात यह थी कि यह समूचा अध्ययन देश के एक अग्रणी चिकित्सकीय खोज संस्थान के बैनर तले संचालित हो रहा था जिस पर चिकित्सीय शोध की नैतिक मार्गदर्शिका बनाने की प्रमुख जिम्मेदारी थी.
मुंबई में आयोजित सम्मेलन में उद्योगपतियों के संगठन फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन चेंबर ऑफ़ कामर्स एंड इंडस्ट्रीज (फि़क्की) की तरफ़ से एक रिपोर्ट भी पेश की गयी, जिसमें यह जोर भी दिया गया कि 'राष्ट्र्रीयÓ हितों को सुरक्षित करने के लिए उपयोगी प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है.
मालूम हो कि पिछले दिनों ड्यूक युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के मेडिकल रिसर्च इस बात को लेकर आश्चर्यचकित थे कि वर्ष 2007 में जिन नये ड्रग्स पर परीक्षण चले थे, उसके संबंध में एक तिहाई से अधिक परीक्षण अमेरिका के बाहर हुए थे. प्रस्तुत अध्ययन में अमेरिका की बीस बड़ी फ़ार्मास्युटिकल्स कंपनियों ने 500 से अधिक चिकित्सीय परीक्षणों का विश्लेषण किया गया था.
अधिक महत्वपूर्ण बात यह था कि जिन बाहर के मुल्कों में इन परीक्षणों को अंजाम दिया गया, उसके बारे में कंपनियों के लिए पहले से स्पष्ट था कि उनके इन दवाओं के लिए कोई खास मार्केट मिलनेवाला नहीं है. जब तक चिकित्सीय नैतिकता के केंद्र में 'जानकारी के साथ सहमतिÓ का मसला नहीं रहेगा, तब तक ऐसे प्रयोगों का बार-बार दोहराव हम देखते रहेंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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