कृष्णप्रताप सिंह
1.लूट की आंधी-तूफ़ान की तरह आ रही खबरों ने सरकारी अनाज के गोदामों के बाहर सडऩे की खबरों से लोगों का ध्यान हटा दिया.
2.गैरजिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई की बात करनेवाले कृषि मंत्री अब कह रहे हैं कि ज्यादा अनाज सड़ा ही नहीं.
3.जिस मात्रा को वे तुच्छ बता रहे हैं वह कुल भंडारित अनाज का कम से कम 15 प्रतिशत तो है ही.
न्याय का सामान्य-सा नियम है कि एक अपराध को दूसरे का औचित्य सिद्ध करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. लेकिन देश की सरकारी व्यवस्था की मैली गंगा ठीक इसकी उल्टी दिशा में बहने लगी है और उसकी धारा में भ्रष्टाचार व काहिली की हर दूसरी जुगलबंदी पहली को वैधता प्रदान करती और उसकी ओर से लोगों का ध्यान हटा देती है.
इसका सबसे अच्छा और ताजा उदाहरण नयी दिल्ली में होने जा रहे राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों में हुई व्यापक लूट है. इस लूट की आंधी तूफ़ान की तरह आ रही खबरों ने सरकारी अनाज के गोदामों के बाहर खुले में सडऩे की उन खबरों की ओर से लोगों का ध्यान बरबस हटा दिया जो इस बार मानसून आने के साथ ही आनी शुरू हो गयी थीं. अब लूट का त्रास देश को इतना उद्विग्न किये हुए है कि किसी के भी नथुने अनाज सडऩे की दुर्गंध महसूस नहीं कर पा रहे.
इससे कृषि मंत्री शरद पवार को यह कहकर पल्ला झाड़ लेने की सहूलियत हासिल हो गयी है कि जो अनाज सड़ रहा है, वह तो सरकार द्वारा भंडारित कुल अनाज का एक छोटा अंश है. उसे लेकर बहुत चिंतिंत होने की जरूरत नहीं.मौके का फ़ायदा उठा कर उन्होंने यह भी कह दिया कि अनाज सड़े तो सड़े, वे सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के मुताबिक उसे मुफ्त में गरीबों में नही बांटनेवाले. वैसे भी कृषि मंत्री एक पहुंचे हुए राजनीतिज्ञ हैं और जानते हैं कि कब जनता के रोष को किस तरह दूसरी दिशा में मोड़ा व उसकी तीव्रता को कम किया जा सकता है.
याद कीजिए, आइपीएल के घोटालों और खाद्यान्नों की मंहगाई के लिए चौतरफ़ा आलोचना के शिकार होने के बाद कैसे उन्होंने प्रधानमंत्री से निवेदन कर डाला था कि उनकी जिम्मेदारियां थोड़ी घटा दी जायें लेकिन अब वे इसकी जरूरत महसूस नहीं कर रहे क्योंकि आलोचनाओं का रुख राष्ट्रमंडल खेलों की ओर मुड़ गया है. शुरू में अनाज सडऩे के लिए जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई की बात करने वाले कृषि मंत्री अब कह रहे हैं कि ज्यादा अनाज सड़ा ही नहीं तो इससे कम से कम दो बातें साफ़ हैं- न जवाबदेह अधिकारियों पर कार्रवाई होगी और न ही भंडारण क्षमता बढ़ाने की कोशिशें की जायेंगी.
जब कोई समस्या ही नहीं है तो इनकी जरूरत ही क्या? फिऱ इस आरोप की सफ़ाई देने की भी क्या जरूरत कि अनाज जानबूझ कर सड़ाया जा रहा है ताकि बाद में शराब निर्माताओं को बेचा जा सके. कृषि मंत्री की पार्टी की साङोवाली महाराष्ट्र सरकार ने शराब लाबी के प्रभाव में आकर व्यापक विरोध की अनदेखी कर राज्य के निर्माताओं को सड़ा अनाज खरीद कर शराब के उत्पादन में इस्तेमाल करने की इजाजत से भले ही इस आरोप को आधार प्रदान कर दिया हो, स्थिति को झुठलाने के प्रयासों के बीच धीरे-धीरे वर्षा खत्म हो जायेगी और रेल पटरियों तक पर अनाज सडऩे की बात अपने आप आयी गयी हो जायेगी! सोचिए कि ऐसा उस देश में होगा जहां चालीस करोड़ से ज्यादा लोगों को अभी भी दिन भर में सिफऱ् एक वक्त का भोजन नसीब होता है.
वह भी किसी तरह पेट भरने लायक, पोषक नहीं.आइए, कृषि मंत्री के कहे की थोड़ी पड़ताल करें. सड़े अनाज की जिस मात्रा को वे तुच्छ बता रहे हैं वह कुल भंडारित सरकारी अनाज का कम से कम 15 प्रतिशत तो है ही. और यह प्रतिशत पंजाब व हरियाणा में भी नीचे नहीं जाता, जहां देश का लगभग आधा गेहूं उत्पादन होता है. पता नहीं इसके कितना और बढऩे पर कृषि मंत्री को लगेगा कि सडऩ अब तुच्छ नहीं रही! उत्तर प्रदेश का हाल तो और भी बुरा है.
वहां राहुल गांधी की अमेठी तक में लोग सड़ा गला अनाज बीनते बटारते टेलीविजन चैनलों पर देखे जा सकते हैं. मगर इस प्रदेश में अनाज गोदामों की कमी से नहीं बल्कि इसलिए सड़ रहा है कि राज्य भंडार निगम ने अपने ग्यारह में से छ गोदाम एक बड़ी कंपनी को किराये पर दे रखे हैं जिसने उनमें शीतल पेयों की बोतलें, सिगरेटों के पैकेट और शराब का भंडारण कर रखा है.
यहां कृषि मंत्री इस बात की छूट ले सकते हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार पर उनका कोई वश नहीं चलता. लेकिन जो भारतीय खाद्य निगम खुद कृषि मंत्री के अधीन है, वह भी स्वीकार करता है कि पिछले दस सालों से खाद्यान्न भंडारण बढ़ाने की कोई सुसंगत योजना उसके पास नहीं है. वैसे इस निगम का चाल चलन भी उत्तर प्रदेश के भंडारागार निगम से कुछ अलग नहीं है.
भंडारण क्षमता से कम अनाज भंडारित होने पर भी इसके गोदामों में अनाज खराब होता रहता है. इसलिए कि अनाज को सड़ा दिखा कर उसके औने-पौने निस्तारण से भी जेबें गरम करने का खेल होता है. कृषि मंत्री इसके जिम्मेदार अफ़सरों पर कार्रवाई की बात कर रहे थे तो भी यह सवाल अनुत्तरित था कि ऐसी कार्रवाई से खराब हुआ अनाज क्या फिऱ से लोगों की भूख मिटाने लायक बन पायेगा? अगर नहीं तो इसका हासिल क्या है? फिऱ क्यों नही ऐसी दूरदर्शी नीतियां बनायी जातीं कि आग लगने पर कुआं खोदने की प्रवृत्ति का उन्मूलन किया जा सके.
यानी मानसून आने से पहले ही संबंधित अधिकारियों को गोदामों में रखे अनाज की हिफ़ाजत की याद दिलायी जा सके. भारतीय खाद्य निगम की मानें तो उसने तो इसकी याद दिलाई भी थी और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान तो कहते हैं कि उनके राज्य में अनाज सडऩे की नौबत इसलिए आयी कि केंद्र ने अपने हिस्से का अनाज उठाया ही नहीं!दुर्भाग्य से दूरदर्शी नीतियां बनाना एवं उसके अनुसार व्यवस्था चलाना जिन लोगों के हाथ में है, वे जनप्रतिनिधि होकर भी अधिकारियों से कहीं ज्यादा लापरवाह और गैरजिम्मेदार हो गये हैं.
कई मामलों में उन्होने अधिकारियों के साथ मिलकर जनविरोघी गठजोड़ बना लिया है. यह अकारण नहीं हो सकता कि सर्वोच्च न्यायालय को सरकार को सुझाना पड़ता है कि वह सडऩे को छोड़ दिये गये अनाज को उन गरीबों के बीच बंटवा दे जो भूखे हैं. फिऱ भी कृषि मंत्री ऐसा करने से मना कर देते हैं.
केंद्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय की उस टिप्पणी पर भी गौर नहीं करती जिसमें उसने कहा था कि गरीबों को सस्ती दर पर अनाज उपलब्ध कराने की प्रणाली में भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए प्रभावी उपाय किये जाने की जरूरत है क्योंकि यह प्रणाली कालाबाजारियों एवं बिचौलियों के कब्जे में चली गयी हैं. यह लोग उस अनाज को भी नहीं छोड़ रहे जिस पर सबसे पहला हक गरीबों का बनता है.खुले बाजार में अनाजों की मंहगाई आज भी चिंता का सबब बनी हुई है.
अगर सरकार महज उतना अनाज ही, जिसे बचाने के प्रबंध उसके पास नहीं थे, मानसून से पहले खुले बाजार या जन वितरण प्रणाली के लिए जारी कर देती तो कम से कम अनाजों की कीमतों को बढऩे से रोका जा सकता था. इससे न सिफऱ् गरीबों को राहत मिलती बल्कि जग हंसाई भी सरकार के हिस्से नहीं आती. लेकिन ऐसा तब होता जब इसका जीडीपी पर कोई असर पडऩा होता.
फि़लहाल देश में विकास की जो नई अवधारणा सामने लायी जा रही है, उसमें सब कुछ जीडीपी की उछाल और अर्थ व्यवस्था के बूम पर ही निर्भर करता है. गरीब मरते हैं तो मरें. एक बार राष्ट्रपति केआर नारायणन ने अपने संदेश में कहा था कि आज देश में कोई भूखा सोता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि देश में अनाज की कमी है. वास्तव में वह भूखा इसलिए है कि अनाज खरीद सकने की क्रय-शक्ति उसके पास नहीं है.
आज भी कौन कह सकने की स्थिति में है कि सारे भूखों को क्रय-शक्ति संपन्न कर दिया गया है? गैरजवाबदेही के दौर में इसका जवाब कब मिलेगा, यह भी किसी को नहीं मालूम. सरकार में इतनी हया बची ही नहीं है कि वह इसकी शर्म महसूस कर सके. वह भूख से मौतों पर शर्म महसूस नहीं करती तो अनाज सडऩे से क्यों महसूस करने लगी?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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