अंजलि सिन्हा
अपनी पूर्वघोषित योजना के अनुसार महाराष्ट्र की देवदासियों ने इस साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मुंबई में अपना अर्धनग्न प्रदर्शन किया. वे सरकार के सामने पहले ही अपनी मांगे कई बार रख चुकी हैं तथा विरोध प्रदर्शन कर चुकी हैं. उन्हें उम्मीद है कि अब इस अनोखे अर्धनग्न प्रदर्शन से सरकार दबाव में आ जायेगी और उनकी सुनवाई हो सकेगी. हालांकि महाराष्ट्र सरकार ने अभी तक कोई आश्वासन नहीं दिया है. महाराष्ट्र में देवदासियों की संख्या अच्छी खासी है.
यह एक अलग ही प्रश्न है जो हमारे समाज की संरचना पर विचार करने के लिए मजबूर करता है कि इस जमाने में भी देवदासी प्रथा जीवित क्यों है. यह प्रथा जिसमें माना जाता है कि इन महिलाओं का विवाह भगवान् से हुआ है और वे उन्हीं की सेवा के लिए मंदिर के प्रांगण में रहती है. लेकिन हकीकत का सभी को पता है कि ये महिलायें निराश्रित की तरह और बदहाल होती हैं और भगवान जैसे निर्जीव चीज की सेवा में क्या करेंगी, उन्हें तो वहां के पुजारियों और मठाधीश की सेवा करनी पड़ती है.
यह शुद्ध रूप से धर्मक्षेत्र की वेश्यावृत्ति है जिसे धार्मिक स्वीकृति हासिल है. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने इन देवदासियों, जिन्हें जोगिनियां भी कहा जाता है के बच्चों की स्थिति का संज्ञान लिया और आंध्र प्रदेश सरकार से पूछा कि उसने इन बच्चों के कल्याण के लिए क्या किया है. 2007 में सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र मिला था जिसमें इन बच्चों की दुर्दशा को बयान किया गया था. और जिसे कोर्ट ने जनहित याचिका मान लिया था.
मानवाधिकार आयोग के 2004 के एक रिपोर्ट में इन देवदासियों के बारे में बताया गया है कि देवदासी प्रथा पर रोक के बाद वे देवदासियां नजदीक के इलाके में या शहरों में चली गयी जहां वे वेश्यावृत्ति के धंधें में लग गयी. 1990 के एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 45.9 प्रतिशत देवदासियां एक ही जिलें में वेश्यावृत्ति करती हैं तथा शेष अन्य रोजगार जैसे खेती-बाड़ी या उद्योगों में लग गयी. 1982 में कर्नाटक सरकार ने और 1988 में आंध्र प्रदेश सरकार ने देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था लेकिन लगभग कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 15 जिलों में अब भी यह प्रथा कायम है.
इस प्रथा को कई सारे दूसरे स्थानीय नाम से भी जाना जाता है. राष्ट्रीय महिला आयौग ने भी अपनी तरफ़ से पहल लेकर इन महिलाओं के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए राज्य सरकारों से सूचना मांगी. इसमें कई ने कहा कि उनके यहां यह प्रथा समाप्त हो चुकी है जैसे तमिलनाडू. ओडि़शा में बताया गया कि केवल पुरी मंदिर में एक देवदासी है. लेकिन आंध्र प्रदेश ने 16,624 देवदासियों का आंकड़ा पेश किया. महाराष्ट्र सरकार ने कोई जानकारी नहीं दी, जब महिला आयोग ने उनके लिए भत्ते का एलान किया तब आयोग को 8793 आवेदन मिले, जिसमें से 2479 को भत्ता दिया गया.
बाकी 6314 में पात्रता सही नहीं पायी गयी.मीडिया के एक हिस्से में 15 अगस्त को देवदासियों के इस अर्धनग्न प्रदर्शन की तुलना मणिपुर की महिलाओं द्वारा किये उस प्रदर्शन से की गयी जो उन्होंने वर्ष 2004 में असम राइफ़ल्स के दफ्तर के सामने किया था. थांगजाम मनोरमा नामक युवती के साथ सुरक्षाबलों द्वारा किए गये बलात्कार एवम हत्या के विरोध में मणिपुर में जो व्यापक जनांदोलन हुआ था उसी के तहत मणिपुर के सामाजिक आंदोलन में अग्रणी रही इन महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर असम राइफ़ल्स के मुख्यालय के सामने प्रदर्शन किया था.
यह प्रदर्शन जो अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां हासिल कर सका, जबरदस्त क्षोभ और गुस्से से भरा था जो सेना के खिलाफ़ था. उन प्रदर्शनकारी महिलाओं ने सेना को ललकारा था कि आओ, अगर हिम्मत है तो सरेआम हम सब का बलात्कार करो. मणिपुर की महिलाओं के उस प्रदर्शन और मुंबई में देवदासियों के प्रदर्शन में आकाश-पाताल का फ़र्क था. वह प्रतिरोध था और यह कुछ सुविधाओं की मांग थी. यह प्रदर्शन महाराष्ट्र निराधार और देवदासी महिला संगठन के बैनर तले था.
इन्होंने राज्य सरकार से मदद नहीं मिलने पर केंद्र सरकार से संजय गांधी निराधार योजना के तहत मदद मांगी थी. इस सहायता की पात्रता की कुछ शर्ते पूरी नहीं कर रही थीं इसलिए उन शतरें को खत्म करने की मांग थी. सरकार से अपने हक की मांग करने से कतई असहमति नहीं है लेकिन प्रदर्शन के तरीकों पर जरूर विचार किया जाना चाहिए. यह पुरुष प्रधान मानसिकतावाला समाज औरत की गिनती उसके देह को केंद्र में रख कर ही करता है.
यानी उसका शरीर ही उसका सब कुछ है और उसके माध्यम से उस सब कुछ को ही सबसे बड़े या अंतिम हथियार के रूप में पेश करने जैसी बात है. पश्चिम के देशों में, जहां उपभोक्तावाद हमारे से दो कदम आगे है और हमारा समाज भी लगातार कदमताल करते जा रहा है, वहां ऐसे प्रदर्शन आम बताये जाते हैं.
(लेखिका स्त्री अधिकार संगठन व दिल्ली विश्वविद्यालय से संबध हैं)
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