नीरज सिंह
भले ही हम अमेरिका के इराक और अफग़ानिस्तान पहुंच जाने की निंदा करें. अमेरिका की साम्रज्यवादी नीतियों के खिलाफ़ धीमी जुबान में आवाज उठायें. लेकिन यह भी सच है कि हम हर संकट के लिए अमेरिका की ओर ही देखते हैं. पाकिस्तान भारत को घुड़की देता है या फिऱ अफग़ानिस्तान में हमारी विदेश नीति कमजोर पड़ती है.
तब भी हम चाहते हैं कि महाशक्ति हमारे साथ आये. शायद यही महाशक्ति की विडंबना है. सैमुअल हटिंगटन के शब्दों में अमेरिका विश्व बनता है. विश्व अमेरिका बनता है. लेकिन अमेरिका अमेरिका ही रह जाता है.एक दौर था, जब अमेरिका पृथकतावाद की नीतियों पर चलते हुए दुनिया में घटने वाली घटनाओं से खुद को अलग रखता था.
द्वितीय विश्व युद्ध में उसे कूदना पड़ा और तब से अमेरिका की स्थिति ऐसी हो गई है कि दुनिया के हर क्षेत्रों में उसे अपनी नीतियां क्रियान्वित करनी पड़ती हैं. सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका विश्व में महाशक्ति की ऐसी वर्चस्व वाली भूमिका में आ गया है जिससे निकल पाना उसके लिए संभव नहीं है. हालांकि, ऐसा कहने के पीछे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अमेरिका के हर कदम को जायज ठहराना नहीं है.
पर इस सच्चाई से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि दुनिया के अनेक देश उसकी आलोचना भी करते हैं और संकट के समय उससे हस्तक्षेप की अपेक्षा भी रखते हैं.जाहिर है इस स्थिति के अनेक जोखिम भी हैं. एक ओर उसकी नीतियों से कोई पक्ष संतुष्ट होता है तो दूसरी ओर दुखी और खिन्न पक्षों द्वारा प्रतिशोधी कार्यावाही की आशंका भी बढ़ जाती है. जब अमेरिकी रक्षा और विदेश नीति इस्रइल की ओर झुकती है तो उसके इस कदम से फ़लिस्तीन और पश्चिमी एशिया के अन्य देशों को चोट पहुंचती है.
जब वह कुवैत के साथ खाड़ी युद्ध में उतरता है तो सद्दाम हुसैन उसका शत्रु बन जाता है. जब वह सोवियत शासन को उखाड़ फेंकने के लिए अफग़ानी लड़ाकुओं की सहायता करता है तो सभी उसके मित्र रहते हैं पर सोवियत सेनाओं के लौटने के बाद ज्योंही वह अफग़ानिस्तान से हाथ खींचता है वहां गृहयुद्ध शुरू हो जाता है.
उसका कोई मित्र नहीं बचता. सउदी अरब में उसके सैन्य ठिकानों से ओसामा बिन लादेन जैसे वे लोग लोग नाराज हो जाते हैं जो कल तक उसके सहयोग से सोवियत सेनाओं को खदेडऩे का अभियान चलाते रहे. इसी तरह जब कोसोवोइयों को उसका समर्थन मिलता है तो सर्ब नाराज हो जाते हैं. अमेरिका के संदर्भ में ऐसे उदाहरण दुनिया में सर्वत्र मिलेंगे. वास्तव में इसे इतिहास की विडंबना ही कहेंगे कि जैसे-जैसे आपकी शक्ति में वृद्धि होती जाती है खतरे उसी अनुपात में बढ़ते जाते हैं.वास्तव में अमेरिकी विरोधाभास के दो पक्ष हैं.
वियतनाम युद्ध अमेरिका पर एक बदनुमा दाग की तरह है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि वह अमेरिका ही था जहां हजारों लोग वियतनाम में अमेरिकी अत्याचार के खिलाफ़ सड़कों पर उतर आए थे. रोनाल्ड रीगन के समय में जब आजाद हुए निकारागुआ को मिलने वाली राशि भेजे जाने से रोक दिया गया था क्योंकि सैंन्दिनिस्ताइयों से कुछ मतभेद हो गये थे.
तब अमेरिका में ऐसा लगा था कि मानों भुखमरी निकारागुआ में नहीं अमेरिका में ही आ गई हो. पूरे देश में कई नागरिक संगठनों ने निकारागुआ भेजने के लिए चंदा इकठ्ठा किया. ऐसे अनेक उदाहरण सामने लाये जा सकते हैं.
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