अलका आर्य
खेलों की चर्चा में मशगूल रहने वाला महानगर का मध्यम, उच्च वर्गीय तबका अक्सर अपने आस-पास या थोड़ी दूरी पर बसी बस्तियों के बच्चों की खेल की बाबत चर्चा नहीं करता.
स्थानीय प्रशासन/सरकार को भी इसकी ज्यादा फिक्र नहीं है. इधर विप्रो के चेयरमैन अजीम प्रेमजी का मानना है कि खेलों को प्रोत्साहित करने की दिशा में पहला कदम यह सुनिश्चित करना है कि सरकार हर बच्चे को खेल मैदान, बढिय़ा खेल उपकरण व कोचिंग मुहैया कराए. यह सब हमारे पास नही है. यह सच है कि अपने देश में खेलों को प्रोत्साहित करने के लिए उसके बुनियादी ढांचे पर अधिक रकम न खर्च करने की प्रवृत्ति आज भी कायम है.
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि शहरी मध्यम व उच्च वर्ग के बच्चों के पास क्रिकेट, फुटबाल, बैडमिंटन जैसे खेल खेलने की सुविधा उपलब्ध है. वे जिस स्कूल में पढऩे जाते हैं, वहां इनडोर व आउट डोर गेम्स के लिए स्पेस होता है। शाम को वे किसी प्राइवेट कोचिंग सेंटर में जाकर अपनी खेल प्रतिभा को और निखार सकते हैं. मगर इस सरकारी उदासीनता व गैरबराबरी के ढांचे पर टिके इस समाज में बस्तियों में रहने वाले हजारों बच्चों/नवकिशोरों के हिस्से खेल के नाम पर क्या मिलता है, यह जानना भी जरूरी है. जिन सरकारी स्कूलों में वे पढ़ते हैं, वहां पढ़ाई का बुनियादी ढांचा तक उपलब्ध नहीं, कहीं विद्यार्थी अधिक तो क्लास रूम छोटे, कहीं टेंट ही क्लास रूम हैं. ऐसे में खेल को कौन तवज्जो देगा. ये बच्चे जिन बस्तियों में रहते हैं, वहां नगर प्रशासन ने छोटे-छोटे पार्क बनाकर अपना खेल दायित्व पूरा कर लिया है. मगर इन पार्कों की हालत यह है कि बस्ती के आवारा पुरुष दिन में ही वहां जुआ खेलते हैं, शराबी जुटते हैं, लोग कूडा फेंकते हैं.
दिल्ली की एक पुनर्वास बस्ती मदनगीर खादर में छठी क्लास में पढऩे वाले एक बच्चे ने बताया कि वह व उसके कई दोस्त फुटबाल खेलना चाहते हैं, पर कहां खेले व कौन उन्हें सिखाएगा. उस जैसे अनेक बच्चे ऐसे कई सवाल आपसे पूछ सकते हैं. दिल्ली के ऐसे बच्चों को खेल की बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने के मकसद से 'हम भी खेलेंगे-पर कहां व कैसेÓ नामक एक अभियान पिछले महीने शुरू किया गया. हाशिए के इन बच्चों के लिए यह विचार दिहाड़ी, आश्रय, शिक्षा, निर्माण मजदूरों व बेसहारा लोगों की समस्याओं पर लंबे समय से एक समझ विकसित करने वाले लोगों के दिमाग की उपज है. मोबाइल क्रैच, अंकुर, सैंटर फॅार एडवोकेसी व रिसर्च और जागोरी ने मिलकर इस अभियान की शुरूआत की और नीति निर्माताओं का ध्यान इस मुददे की ओर आकृष्ट किया.
दिल्ली की ही एक बस्ती में रहने वाली कुछ लड़कियों ने मायूसी भरे लहजे में बताया कि लड़कियों की जिंदगी से खेल लगभग गायब हो चुका है. लड़के फिर भी कभी-कभार खेलते नजर आ जांएगे, चाहे वह जगह असुरक्षित छत हो या सड़क. मगर लड़कियां नजर नहीं आती. गौरतलब है कि अपने देश में महिला खिलाड़ी बहुत कम हैं. उन्हें इस दिशा में खास प्रोत्साहन पैकेज की दरकार है. बस्तियों में रहने वाली लड़कियां खेलों में क्यों पीछे रह जाती हैं, इस ओर ध्यान देना होगा. सरकारी व छोटे प्राइवेट स्कूलों में खेल की सुविधा न के बराबर होती है. अक्सर अध्यापक व अभिभावक भी उन्हें इस दिशा में दिलचस्पी पैदा करने में खास रुचि नहीं दिखाते. वे इस सोच के शिकार होते हैं कि लड़कियां खेलकर क्या करेंगी. शादी के बाद अपने घर चली जाएंगी, वहां खेलने का वक्त कहां मिलेगा. एक तरफ वे इस पिछड़ी सोच के शिकार हैं तो दूसरी तरफ आवारा पुरुषों के ठिकानों में तब्दील हो चुके बस्तियों के पार्कों का माहौल रुकावट बनता है.
हाल में देश के 15 बड़े शहरों (जिसमें दिल्ली भी शमिल है) में एक सर्वेक्षण किया गया, जिससे यह पता चला कि शहरी इलाकों के वंचित तबके के विद्यार्थियों को आउटडोर गतिविधियों के लिए स्पेस नहीं मिलता. 5 से 9 आयु वर्ग के बच्चों की हेल्थ व फिटनेस में बहुत सुधार हो सकता है, अगर उन्हें खेलने के मौके नियमित उपलब्ध कराए जाएं. यह कैसा विकास है, जहां वंचित तबके के बच्चों के लिए खेल के मैदान तक नहीं हैं. अगर कहीं है तो उनकी हालत बेहद खराब है. खेलना बच्चे का स्वभाव है औेर खेल की सुविधा प्रदान करना सरकार का दायित्व. सरकार खेल मैदान, खेल उपकरणों की देख-रेख की जिम्मेदारी से मुहं नहीं फेर सकती. समुचित सुविधाओं व सिस्टम के अभाव में तमाम बाल प्रतिभाएं असमय दम तोड़ देती हैं. अपने देश को चीन की ओर न सिर्फ आर्थिक तरक्की के लिए देखना होगा बल्कि खेल प्रबंधन के गुर भी सीखने होंगे. वहां के स्पोट्र्स स्कूलों में करीब दो लाख पेशेवर एथलीटों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं कि खेलों के पुनरुत्थान के लिए सरकार को प्रतिबद्धता दिखानी होगी, जिसमें हाशिए के बच्चे भी शमिल हों.total state
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