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राजकमल कटारिया

Raj Kamal Kataria

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Sunday, 21 November 2010

भगवा कहने से क्यों भड़के?

सत्येंद्र रंजन

1.कुछ नेताओं का कहना है कि चिदंबरम ने भगवा आतंकवाद की बात कह कर भारतीय संस्कृति का अपमान किया है.

2.मालेगांव, हैदराबाद की मक्का मसजिद, अजमेर शरीफ़, गोवा की घटनाएं क्या उन्होंने जो कहा, उसे कहने के ठोस सबूत नहीं हैं?

3.क्या वजह थी कि आडवाणी और राजनाथ सिंह आतंकवाद का आरोप लगने के बाद साध्वी प्रज्ञा सिंह के बचाव में आगे आये.

गृह मंत्री पी चिदंबरम भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के दूसरे संगठनों के निशाने पर हैं. अभी कुछ समय पहले तक यही संगठन चिदंबरम से बेहद खुश थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उनकी तारीफ़ में सार्वजनिक बयान दिया था. राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने उनके प्रति पुरजोर समर्थन जताते हुए कांग्रेस पार्टी और सरकार में मौजूद मतभेदों के आधार पर उनको कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी. लेकिन तब मामला माओवाद का था.

अब मुद्दा भगवा आतंकवाद का है. पिछले हफ्ते राज्यों के पुलिस महानिदेशकों और सुरक्षा बलों के अधिकारियों के सम्मेलन में चिदंबरम ने देश की सुरक्षा के लिए मौजूद चुनौतियों का जिक्र करते हुए उन्हें भगवा आतंकवाद के खतरे से भी आगाह किया. यह भाजपा और संघ परिवार को नागवार गुजरा है.

उनकी तरफ़ से चिदंबरम से माफ़ी मांगने की मांग तो की जा रही है, कुछ नेताओं ने चिदंबरम से इस्तीफ़े की मांग भी कर दी है. भाजपा नेताओं का कहना है कि चिदंबरम ने भगवा आतंकवाद की बात कह कर भारतीय संस्कृति का अपमान किया है, क्योंकि साधु-संत भगवा कपड़े पहनते हैं. कुछ बयानों में इस तरफ़ भी ध्यान दिलाया गया है कि भारत के राष्ट्रीय झंडे में सबसे ऊपर केसरिया रंग है और इस तरह यह देश का अपमान है. संघ परिवार की तरफ़ से उठे शोर, हिंदू वोट गंवाने की चिंता और संसदीय समीकरणों में भाजपा से बने नये तालमेल ने कांग्रेस को बचाव की मुद्रा में डाल दिया है.

पार्टी ने सार्वजनिक बयान जारी कर खुद को चिदंबरम के बयान से अलग किया. वही घिसी-पिटी बात दोहरायी कि किसी मजहब का आतंकवाद से कोई रिश्ता नहीं होता है. यह बात अपने-आप में ठीक है. लेकिन जब यह बात किसी हकीकत पर परदा डालने के लिए कही जाती है, तो यह खतरनाक हो जाती है. कोई धर्म आतंकवाद की शिक्षा नहीं देता. लेकिन धर्म के नाम पर आतंकवाद फ़ैलाया जाता है, यह भी उतना ही सच है.

यहां मुद्दा यह नहीं है कि चिदंबरम ने जिस शब्द का इस्तेमाल किया, वह सही है या नहीं? मुद्दा यह है कि जिस मसले का उन्होंने जिक्र किया, वह आज एक हकीकत है या नहीं? मालेगांव, हैदराबाद की मक्का मसजिद, अजमेर शरीफ़ दरगाह और गोवा की घटनाएं क्या उन्होंने जो कहा, उसे कहने के ठोस सबूत नहीं हैं? समझौता एक्सप्रेस पर हमले की जांच अब राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) कर रही है.

वह जिन नजरियों से इस घटना की तहकीकात कर रही है, उसमें हिंदुत्ववादी आतंकवाद के हाथ का पहलू भी शामिल है. क्या इन घटनाओं और उनसे पैदा हो रहे खतरे का जिक्र सुरक्षा अधिकारियों के सम्मेलन में नहीं होना चाहिए? उसे भगवा आतंकवाद कहा जाये या या हिंदुत्ववादी आतंकवाद, इससे ओखर क्या फ़र्क पड़ जाता है? इसलामी या इसलामिक या जिहादी आतंकवाद आज मीडिया और सार्वजनिक चर्चाओं में प्रचलित शब्द हैं.

ये शब्द इसलिए प्रचलित हुए, क्योंकि जो लोग ऐसे आतंकवाद को अंजाम देते हैं, वे इसलाम की तरफ़ से जंग लडऩे का दावा करते हैं, भले इसलाम की उनकी परिभाषा बेहद संकीर्ण हो. जिन संगठनों ने मालेगांव, मक्का मसजिद, अजमेर शरीफ़ या गोवा में बम धमाके किये उनका भी एक खास मकसद है और वे एक खास मजहबी पहचान का चोला ओढ़ कर इस काम में निकले हैं. यहां गौरतलब यह है कि इस पहचान और मकसद दोनों का संघ परिवार से मेल है.

वरना क्या वजह थी कि भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह आतंकवाद का आरोप लगने के बाद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के बचाव में आगे आये? प्रज्ञा के साथ राजनाथ सिंह की तस्वीर मीडिया में छपी थी. क्या इस पर उन्होंने कभी अफ़सोस जताया? और सबसे बड़ी बात यह कि आज तक भाजपा ने अभिनव भारत जैसे संगठन, और प्रज्ञा सिंह और कर्नल पुरोहित जैसे आतंकवाद के आरोपियों की खुले एवं बेलाग शब्दों में निंदा क्यों नहीं की है? यह बातें यह समझने के लिए काफ़ी हैं कि आतंकवाद का भी एक रंग और एक चेहरा होता है.

यह कहना कि आतंकवाद तो आतंकवाद है, उसका कोई धर्म या समुदाय नहीं होता, सच्चाई से मुंह मोडऩा है. कांग्रेस जैसी समझौता परस्त पार्टी यह कर सकती है, लेकिन देश का जागरूक जनमत ऐसा नहीं कर सकता. ना ही पेशेवर सिद्धांतों पर चलने वाली सुरक्षा एजेंसियां ऐसा कर सकती हैं. जिहादी और हिंदुत्ववादी आतंकवाद का एक ही मकसद नहीं है.

अगर दोनों के दो मकसद हैं, तो उनसे लडऩे के लिए उन्हें अलग-अलग ढंग से ही समझना होगा.हिंदुत्ववादी चरमपंथी संगठन और उनसे उपजा आतंकवाद आज देश में धार्मिक गोलबंदी की कोशिश में है. वैसी ही कोशिश में, जैसी एक समय अयोध्या आंदोलन के नाम पर की गईथी. ये संगठन जानते हैं कि जब तक व्यापक रूप से ऐसी राजनीतिक गोलबंदी नहीं होती, तब तक हिंदू राष्ट्र की स्थापना नहीं हो सकती और सावरकर-गोलवरकर के सपनों का भारत नहीं बनाया जा सकता.

जिहादी आतंकवाद अगर धमाकों और विवेकहीन हत्याओं के जरिये भारत के आत्मविश्वास को तोड़ कर यहां अफऱातफऱी फ़ैलाना चाहता है तो हिंदुत्ववादी आतंकवाद सियासी गोलबंदी के जरिये देश की सत्ता पर काबिज होकर आधुनिक लोकतांत्रिक भारत की जगह एक ऐसी व्यवस्था बनाना चाहता है, जिसमें अल्पसंख्यक समुदायों को मातहत और पुरातन सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को फिऱ से स्थापित किया जा सके. दोनों आतंकवाद के अपने खतरे हैं.

पाकिस्तान ने जिहादी आतंकवाद को बढ़ावा देकर जो बीज बोया, उसकी फ़सल वो आज काट रहा है. उससे आज सबक लेने की जरूरत है. हिंदुत्ववादी आतंकवाद की धारा अगर मजबूत हुई तो वैसा ही परिणाम भारत को भुगतना पड़ सकता है. लेकिन संघ परिवार कोई सबक लेने को तैयार नहीं है. अगर देश के गृहमंत्री ने इस खतरे की तरफ़ इशारा किया है, तो जरूरत उसकी गंभीरता में जाने की है.

इस बात को समझने की जरूरत है कि यह खतरा आज अपने पंख इतना फ़ैला चुका है कि उसके प्रति सुरक्षा एजेंसियों को आगाह करने की जरूरत पड़ रही है. लेकिन भाजपा और संघ परिवार ने इसे भी सियासी गोलबंदी का मुद्दा बना दिया है. जब देश किसी चरमपंथ या आतंकवाद को इस हद तक नैतिक और राजनीतिक समर्थन मिले तो समझा जा सकता है कि खतरा कितना गंभीर है. चिदंबरम ने इससे आगाह कर देश की बड़ी सेवा की है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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