total stateरविभूषण
1.नयी उदार अर्थ-व्यवस्था का दबाव और दबदबा सभी क्षेत्रों में है. इसके पहले भीषण आवाजें भी सुनी जाती थीं.
2.भारतीय लोकतंत्र कामकाजी नहीं कागजी बन कर रह गया है. इसके दो चेहरे हैं.
3.क्या अब सबकुछ निजी पूंजी के हवाले कर दिया जाना चाहिए?
भारत विभिन्न जातियों, समुदायों, धर्मो, विश्वासों, सिद्धांतों, धारणाओं, दृष्टियों, विचारों, व्यवहारों, संस्कृतियों का देश है, जिनमें सदैव संवाद होता रहा है. यह देश अपने इन गुणों के कारण सदैव लोकतांत्रिक देश रहा है. भारतीय लोकतंत्र को जीवित और गतिमान बनाए रखने में यहां के वासियों की सबसे बड़ी भूमिका है.
कथन आधुनिक युग में माओ-त्से-तुंग का है कि सौ फूलों को खिलने दो, पर भारत में अनेक फूल एक साथ खिलते रहे हैं. राज्य का ध्यान इस ओर कम रहा और सत्ता राजनीति से विमुखता वह कारण बनी, जिसने स्वतंत्र भारत में अनेक नए दहकते सवाल खड़े कर दिए हैं. कई आवाजें अनकही-अनसुनी रह गई हैं और सर्वत्र एक दहाड़ती आवाज प्रमुख होती गयी है, जो सत्ताधारियों, उनके समर्थकों और अनुयायियों की है. यह लोकतंत्र के लिए घातक है.
कई आवाजों के बीच का आवश्यक निरंतर संवाद अब समाप्त प्राय है और सर्वत्र प्रभुत्वशाली आवाज सुनाई पड़ती है. मीडिया में भी सभी आवाजें सुनाई नहीं देती. यह एक साथ लोकतंत्र, भाषा, संस्कृति, सामाजिक भावना, सामुदायिकता सबके लिए नुकसानदेह है.नयी उदार अर्थ-व्यवस्था का दबाव और दबदबा सभी क्षेत्रों में है. इसके पहले भीषण आवाजें भी सुनी जाती थी.
इस उदार अर्थ-व्यवस्था के सहयात्री दूसरी आवाजों को नजर अंदाज करते हैं. आर्थिक समद्धि भी इस कारण कुछ प्रतिशत लोगों के यहां है. आज भी भारत की साठ-सत्तर प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है. वह कृषि पर अवलंबित है. राज्य को, सरकारों को अपने देश की विशाल जनसंख्या की चिंता नहीं है. उसका इस विशाल समुदाय से संबंध-विच्छेद हो चुका है.
फासले निरंतर बढ़ रहे हैं. जिससे एक अशांत वातावरण का निर्माण हो रहा है. यह अराजक और हिंदू वातावरण में न बदले इसकी ईमानदार चिंता कम है. कुछ उदाहरणों से इसे देखा-समझा जा सकता है. पहला उदाहरण माओवादी नेता-प्रवा चेनकुरी आजाद राजकुमार का है, जिसकी आंध्र प्रदेश पुलिस ने हत्या की और इसे मुठभेड़ बताया. इस फर्जी मुठभेड़ के तथ्य सामने आ चुके हैं.
गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने स्वामी अग्निवेश को शांति-खोज के लिए माओवादी से बातचीत करने को कहा था. अग्निवेश की भूमिका एक मध्यस्थ की थी. वे सार्थक संवाद करने की भूमिका में थे. माओवादी नेता आजाद दंडकारण्य के माओवादी नेताओं को उनका संदेश पहुंचाने वाले थे.
आंध्र प्रदेश की पुलिस ने आदिलाबाद जिले में एक जुलाई को आजाद की हत्या कर दी. (आउटलुक, छह सितंबर 2010) ने द मर्डर ऑफ आजाद का तथ्यांवेषण किया. आजाद के साथ पत्रकार हेमचंद पांडे भी मारे गए. आवाजों के बीच का संवाद समाप्त किया गया. नयी उदार अर्थव्यवस्था के दौर में राज्य का चरित्र और उसकी भूमिका भिन्न है.
सरकारें और विभिन्न राजनीतिक दल के सरोकार भी पहले की तरह नहीं हैं. सरोकारों के बदलने से व्यवहार और भाषा भी बदलती है. सरोकारों के कारण ही नीतियों का रूप-स्वरूप निर्मित होता है. पूर्व नीतियां धरी रह जाती हैं और पूर्व कानूनों पर भी अमल नहीं हो पाता. संसद में पारित पूर्व कानूनों की अनदेखी और उपेक्षा के क्या कारण हैं.
नये कानून किसके हित को ध्यान में रख कर बनते हैं. वेदांता परियोजना में एक साथ तीन कानूनों-पर्यावरण संरक्षण, वन संरक्षण और वनाधिकार के पालन का, उल्लंघन क्यों हुआ? क्या इसमें नेताओं और अधिकारियों की कोई सहमति नहीं रही होगी? वेदांता के बॉक्साइट खनन परियोजना का विरोध करनेवाले आदिवासियों की चिंताएं सरकार, उद्योगपति और नौकरशाहों की चिंताओं से भिन्न है. ये दोनों भिन्न प्रकार की चिंताएं हैं. क्या इन दोनों के बीच सार्थक स्तर पर संवाद संभव है? केंद्र में सप्रग की सरकार है और ओडि़शा में बीजद की.
क्या कांग्रेस और बीजद ही नहीं, अन्य सभी भारतीय राजनीतिक दलों की विकास-संबंधी भिन्न दृष्टियां है? प्रश्न किसी दल विशेष का नहीं है क्योंकि तमाम क्रीम पाउडर के बाद भी सबके चेहरे एक हैं- आर्थिक-विकास नीतियों का है, जहां कोई मतभेद नहीं है. राजनीतिक दलों की आवाजों में क्या सचमुच कोई भिन्नता है? जन-दबाव के कारण कुछ समय के लिए वे भिन्न रूप में सोचने का स्वांग भले करें, पर उनकी आवाजें भिन्न नहीं हैं.
वेदांता रिसोर्सेज के अनिल अग्रवाल की संपत्ति एक वर्ष में कई बिलियन डालर बढ़ जाती है, नेताओं अफसरों की संपत्ति में धुंआधार इजाफा होता है, पर गरीबों की दशा नहीं सुधरती. आवाजें प्रमुख दलों के बीच भी एक नहीं है. क्या कांग्रेस के सभी नेताओं और मंत्रियों की आवाजें एक हैं? दल विशेष में आवाजों की भिन्नता से उसकी लोकतांत्रिकता का संबंध नहीं है. वहां विरोधी आवाज तो दूर, भिन्न आवाजें भी कम सुनाई पड़ती हैं.
इन भिन्न आवाजों से यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि उनमें वास्तविक रूप से जन-स्वर सुनाई पड़ रहे हैं. कृषि मंत्री शरद पवार और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के स्वर समान नहीं हैं. दोनों एक ही दल के हैं. सुप्रीम कोर्ट की सलाह के बाद भी शरद पवार इसके पक्ष में नहीं हैं कि अनाज गरीबों को मुफ्त मिले और जयराम रमेश की चिंता में निश्चित रूप से पर्यावरण है.
क्या सचमुच सभी मंत्रियों की चिंताएं उनके अपने कार्यक्षेत्र से जुड़ी हुई हैं? प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करनेवाले और उनका अंधाधुंध दोहन करनेवाले क्या एक साथ हो सकते हैं? दृष्टियों, विचारों, धारणाओं, लगावों, सिद्धांतों, व्यवहारों, कार्यप्रणालियों, संप्रभुताओं आदि के आधार पर आवाजें बदलती हैं. मानस-निर्माण का कार्य सबसे बड़ा है और अब भारत का कोई भी शिक्षण-संस्थान और विश्वविद्यालय पूर्णत: जनोन्मुखी मानस का निर्माण नहीं करता.
संस्थाएं इसी कारण अविश्वसनीय हो गयी हैं. अविश्वसनीयता विगत दो दशकों में सर्वाधिक बढ़ी है, जिसका सीधा संबंध शब्द और कर्म की विपरीतता से है. शब्दों का प्रोफाइल आज सर्वाधिक है, पर कर्म (सामाजिक) की हलचल कम है. कागज पर लिखे, टंकित, मुद्रित शब्द प्रमुख है. सभी आदिवासियों के पास उनकी जमीन के कागज नहीं हैं.
वे वनों में रहते हैं और उनके पास कोई कागजी प्रमाण नहीं है. भारतीय लोकतंत्र कामकाजी नहीं कागजी बन कर रह गया है. इसके दो चेहरे हैं. भारतीय लोकतंत्र, भारतीय राजनीति के दो चहरे- जिनमें छद्म और वास्तविक की पहचान आसान नहीं है. अभी लगभग एक सप्ताह पहले रामचंद्र गुहा ने भुमंडलीकरण के दो चेहरे शीर्षक के अपने लेख में मंगलूर के साफ्टवेयर उद्योग और वेल्लारी के खान उद्योग में दिन-रात का अंतर देखा है.
एक कर्नाटक के दो चेहरे. एक ओर इंफोसिस है और दूसरी ओर गैर कानूनी ढंग से विगत एक दशक में कर्नाटक से तीन करोड़ टन लौह अयस्क के निर्यातक वेल्लारी में जंगल नष्ट हुए हैं, पानी के सोते सूखे हैं और नदियां प्रदूषित हुई हैं. वहां के खान उद्योगपति की मु_ी में राजनीति, प्रशासन सब कुछ है. रामचंद्र गुहा ने अपने लेख में पूंजीवाद के प्रगतिशील और पतनशील पों की चर्चा की है.
क्या राजकीय पूंजीवाद की निजी-निगमीय पूंजीवाद की सांठ-गांठ से कोई सार्थक परिणाम निकल सकता है? क्या अब सब कुछ निजी पूंजी के हवाले कर दिया जाना चाहिए? फिर छोटी पूंजी का क्या होगा? क्या बड़ी मछलियां सभी छोटी मछलियों को निगल लेंगी? क्या आवाजों की भिन्नता बची रहेगी? क्या भारतीय लोकतंत्र एक स्वस्थ और आदर्श लोकतंत्र रहेगा? क्या इस लोकतंत्र में लोक की आवाज सुनी जायेगी?
आपका टोटल स्टेट
प्रिय साथियों, पिछले दो वर्षों से आपके अमूल्य सहयोग के द्वारा आपकी टोटल स्टेट दिन प्रतिदिन प्रगति की ओर अग्रसर है ये सब कुछ जो हुआ है आपकी बदौलत ही संभव हो सका है हम आशा करते हैं कि आपका ये प्रेम व उर्जा हमें लगातार उत्साहित करते रहेंगे पिछलेे नवंबर अंक में आपके द्वारा भेजे गये पत्रों ने हमें और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित किया व हमें हौसलां दिया इस बार दिसंबर अंक पर बहुत ही बढिय़ा लेख व आलेखों के साथ हम प्रस्तुत कर रहें हैं अपना अगला दिसंबर अंक आशा करते हैं कि आपको पसंद आएगा. इसी विश्वास के साथ
आपका
राजकमल कटारिया
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