आपका टोटल स्टेट

प्रिय साथियों, पिछले दो वर्षों से आपके अमूल्य सहयोग के द्वारा आपकी टोटल स्टेट दिन प्रतिदिन प्रगति की ओर अग्रसर है ये सब कुछ जो हुआ है आपकी बदौलत ही संभव हो सका है हम आशा करते हैं कि आपका ये प्रेम व उर्जा हमें लगातार उत्साहित करते रहेंगे पिछलेे नवंबर अंक में आपके द्वारा भेजे गये पत्रों ने हमें और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित किया व हमें हौसलां दिया इस बार दिसंबर अंक पर बहुत ही बढिय़ा लेख व आलेखों के साथ हम प्रस्तुत कर रहें हैं अपना अगला दिसंबर अंक आशा करते हैं कि आपको पसंद आएगा. इसी विश्वास के साथ

आपका

राजकमल कटारिया

Raj Kamal Kataria

Raj Kamal Kataria
Editor Total State

Search

Sunday, 21 November 2010

कॉमन गेम्स: गज़ब खेल

डॉ. शमीम शर्मा
प्रिंसीपल माता हरकी देवी महिला कॉलेज, औढां
कॉमनवेल्थ गेम्स में से वैल्थ तो चला गया है और अब कॉमन गेम्स रह गई हैं। वैसे सबसे कॉमन गेम यही है कि जितना हो सके मिलजुल कर वैल्थ चाट लो। अकेली अंगुली रोटी का गस्सा तक नहीं तोड़ सकती। रोटी खाने के लिये सारी अंगुलियों को इकट्ठे होना ही पड़ता है। उसी प्रकार किसी भी परियोजना या खजाने से धन लूटने के लिये सांझा कोशिश करनी पड़ती है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। कॉमनवेल्थ गेम्स इसका ज्वलन्त प्रमाण है। अधिकरी, कर्मचारी, नेता, मंत्री, व्यवसायी, उद्योगपति, विदेशी कम्पनियां आदि सभी की मिलीभगत से करोड़ों हड़पे जा चुके हैं। देशप्रेमी लोगों का कहना है कि किसने कितना खाया या लुटाया इसका फैसला खेल होने के बाद कर लेना चाहिए। अभी देश की बदनामी हो रही है। अरे वाह! अजीब देशप्रेम है। वे यह क्यूं नहीं कहते कि जब चोर रंगे हाथों पकड़े जा रहे हैं तो उधेड़ दो उनको, खींच लो खाल। उनके हाथ में यदि इन खेलोें की डोर कुछ दिन और रह गई तो वे बचाखुचा भी निगल लेंगे और ऐसे छिद्र भी ढूंढ लेंगे जिन जिनमें से बच कर निकलने में सुविधा रहेगी। मेरे मन में तो मीडिया के लिये हार्दिक शाबाशी उमड़ रही है कि जिनके प्रयासों से कॉमनवेल्थ की सच्चाई सामने आई है। वरना आम आदमी को तो पता ही ना चलता कि किस तरह खेल-खेल में खा लिया। रही बात बदनामी की। वह तो होनी चाहिए बल्कि जिन लोगों ने खाया है, उनके नाम जगह-जगह चस्पा होने चाहिएं, ठीक वैसे ही जैसे मोस्ट वांटेड के पोस्टर्स लगाये जाते हैं या जिस तरह फर्जी यूनीवर्सिटी के नाम सभी अखबारों में छापे जाते हैं। अगर हमें देशभक्ति का परिचय देना ही है तो इन खेलों के प्रति बेरुखी दिखाकर दिया जाना चाहिए। न ही तो कोई कम्पनी इनकी प्रायोजक बने और न ही कोई नागरिक इनका दर्शक बने। काश कुर्सियां खाली पड़ी रहें और आने वाले मेहमान पूछें कि कोई आया क्यूं नहीं? और फिर आयोजक शर्म से गर्दन झुकाए खड़े रह जायें। दरअसल ये खेल नहीं रहे बल्कि तमाशा बन गए हैं। जिन लोगों ने इस तमाशे की रचना की है, उन्हें यह बता दिया जाना चाहिए कि देश की आम जनता तमाशबीन बन कर नहीं रह सकती। समय रहते उनकी डुगडुगी पकड़ कर उनके ही कानों में बजा दी जाए जो खेलों के बहाने मालामाल हो गए हैं। उनका तो खेल हो गया और देश की इज्जत तार-तार हो रही है। यदि हमारे खिलाड़ी सभी मुकाबलों के स्वर्ण पदक जीत लें तब भी यह प्रतिष्ठा वापिस नहीं आ सकती क्योंकि धोखधड़ी के खेल ने सबको पछाड़ दिया है। जब खेल चलेंगे तो आम आदमी अपनी दिहाड़ी करेगा न कि विजेताओं के लिये ताली बजाएगा। वैसे भी हर किसी को पता होना चाहिए कि मैडल से ज्यादा रोटी महत्वपूर्ण है। और यह सत्य है कि रोटी के खेल में आम आदमी बुरी तरह हार रहा है।

बाल की खाल निकालें तो अपने कॉमनवेल्थ खेलों में दस्तावेज़ों से छेड़छाड़ का खेल शुरू हो गया है। लोगों ने आरटीआई के माध्यम से खेलों की तह तक गोते लगा लिये हैं। हाथ में मोती तो एक नहीं आया, हां, कोयलों की कमी नहीं है। लोग रंगे हाथों नहीं बल्कि रंगे तन-मन पकड़े जा रहे हैं। नोटों के रंग में पांव से लेकर शीश तक रंगे हैं। दीमक भी किसी पेड़ को चट करने में समय लगाती होगी पर अपने आला लोगों ने नोट चटकाने का बरसों का काम मिनटों में कर दिया। उस पर तुर्रा यह कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है। आयोजक एक ही रटना लगाये जा रहे हैं कि खेल-चोरों के कारनामों की पूरी जांच होगी और कोई बख्शा नहीं जायेगा के खोखले वादे किये जा रहे हैं। चोरों को भागने का पूरा टाईम दिया जा रहा है और मौका भी। बचने-बचाने की योजनायें बन रही हैं। साथ ही जो थोड़ा बहुत पैसा बचा रह गया है, उसे हड़पने के मनसूबों में भी कमी नहीं आई है। किसी ने कहा है कि जो चोर के लिय सीढ़ी पकड़ता है वो भी चोर ही होता है। यहां तो सीढ़ी पकड़ने वालों की पूरी कतार है क्योंकि सीढ़ी पकड़ने के नाम की मोटी रकम मिलती है। संयुक्त सचिव एस. कृष्णन और संयुक्त सचिव राहुल भटनागर ने कॉमनवैल्थ खेलों के नाम पर कुल 21 विदेश यात्रायें की हैं और वे भी उन देशों की जिनका इन खेलों से कोई लेना एक ना देना दो। अब कर लो इन अधिकारियों का जिसने जो करना हो। कोई हाथ तो लगाये। एक फर्रा तक भी नहीं पकड़ाया होगा इनके हाथ में। यही तो असली खेल है कि चकमा ऐसे दो कि पकड़े भी जाओ तो पकड़ में ना आओ। यही तो आपसी मेल का खेल है। इसी कारण बड़े-बड़े डिटैक्टर भी यहां फेल हैं। दरअसल हमारे उच्च अधिकारी और राजनेता चिकन घड़े हैं। उन पर तिल भर भी असर नहीं होता। इन खेलों की कामयाबी को देश की इज्जत से जोड़ कर देखा जा रहा है। इज्जत तो तार-तार हो चुकी है। हां, कुछ मैडल आ जाएंगे तो जरूर मरहम का काम करेंगे पर इसके चांसेज कम ही नज़र आ रहे हैं। फिलहाल लग तो यह रहा है कि गड़बड़झाले के इस खेल में पता नहीं कितनों का तेल निकलेगा और किस-किस की रेल बंधेगी।


No comments:

Post a Comment