प्रमोद सिंह
आखिर क्या वज़ह है हिंदी सिनेमा के अरमान इतने फिसड्डी, इतने दो कौड़ी के हैं? ऐसा क्यों होता है कि 'रंग दे बसंती के कलरफुल फ्लाइट के ठीक अगले कदम वह 'दिल्ली 6 के दिशाहारे मैदान में जाकर ढ़ेर हो जाता है? सिनेमा की अपनी आंतरिक है या यह हिंदी संसार के सपना देख पाने की कूवत के भयावह दलिद्दर की दास्तान है? क्योंकि ऐसे ही नहीं होगा कि पूरी आधी सदी में एक 'परती परिकथा, एक 'आधा गांव के साहित्य और आधे 'राग दरबारी के एंटरटेनमेंट के दम पर एक पूरा समाज अपनी ठकुर सुहाती गाता, ऐंठ के गुमान में इतराता होगा?
उसकी अपनी ज़बान में अंतर्राष्ट्रीय तो क्या राष्ट्रीय ख्याति का भी कोई अर्थशास्त्री, इतिहासकार, समाजशास्त्री क्यों नहीं सोचता, वह कभी नहीं लजाता? इसलिए कि लोगों को वही सरकार मिलती है जितना पाने के वह काबिल होते हैं? हिंदी का साहित्यकार भी हमें उतना ही साहित्य देता है जितने की राजा राममोहन राय लाइब्रेरी खरीदी कर सके? सौ लोग लेखक को लेखक मानकर पहचानने लगें, साहित्य अकादमी रचना-पाठ के लिए उसे बुला सके, शिमला या बीकानेर की कोई कृशकाय कन्या एक भटके, आह्लादकारी क्षणों में लेखक की तारीफ़ में तीन पत्र लिख मारे कि फिर लेखक उसे पटा सके, आगे का अपना चिरकुट जीवन खुशी-खुशी चला सके?
चंद तिलकुट पुरस्कार और इससे ज़्यादा हिंदी का लेखक यूं भी कहां कुछ चाहता है? अरस्तु और वाल्तेयर बनने के तो उसके अरमान नहीं ही होते, वॉल्तेयर बेन्यामिन बनने का तो वह अपने दु:स्वप्न में भी नहीं सोचता, फिर हिंदी सिनेमा ही ऐसी क्यों बौड़म हो कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारे?
साहित्य को तो साहित्यकार के यार लोग ही हैं जो अपने सिर लिए रहते हैं, हिंदी सिनेमा की दिलदारी का तो व्यापक विस्तार भी है, देश में ही नहीं, समुंदरों पार भी है. बिना कुछ किए, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे का हलकान गा-गाकर ही वह सफल बनी हुई है, तो ख्वामख्वाह अपनी सफलता का फॉर्मूला वह क्यों बिगाड़े? चौदह सौ लोगों के बीच के हिंदी साहित्य तक ने जब रिस्क नहीं लिया तो चालीस करोड़ों के बीच घूमनेवाला हिंदी सिनेमा किस सामाजिकता की गरज में अपना बना-बनाया धंधा खराब करे? कोई तुक है? नहीं है.
No comments:
Post a Comment