शमीम शर्मा
मेरे देश की धरती पर फसलें हैं, फूल हैं, घास है, कारखाने हैं, मकान हैं, सड़कें हैं, पुल हैं, घर हैं, गलियां हैं, मोहल्ले हैं, बाजार हैं। पर ये चीजें हैं कहीं-कहीं। एक ऐसी चीज भी है जो हर जगह है। सरकारी भवनों, न्यायालयों की इमारतों, सिनेमाघर के बाहर, बाजार या गलियों के कोनों, खुली जगह आदि पर हर जगह। और तो और मंदिर-मस्जिद के पिछवाड़ों को भी लोगों ने नहीं बख्शा। यह वह जगह है जहां की अपनी एक सडांध है और गंदगीभरा नज़ारा है। जहां से निकलते हुए आप नाक सिकोड़े बिना नहीं जा सकते। और अगर आप महिला हैं तो आपकों अपनी गर्दन घुमाकर दूसरी ओर करनी ही पड़ेगी। यह जगह किसी ठेकेदार या सरकार द्वारा नहीं बनवाई गई है और न ही यह जगह किसी समाज सेवी की देन है। यह तो हमारे मर्दों ने अपनी सुविधा के लिये बना ली है। ऐसी ही जगहों पर लिखा होता है- यहां गधा पिशाब कर रहा है और फिर भी आदमी नाम का जीव लगा ही रहता है। और जिन स्थानों पर यह विशेषतौर पर लिख दिया जाए कि यहां ऐसा करना मना है तो समझ लीजिये कि वह स्थान तो सार्वजनिक शौचालय बन जाता है। मुझे तो उन दीवारों और जमीन के हिस्सों पर तरस आता है जहां इस तरह की हरकत की जाती है। आदमी के मूत्र से सिंची यह जमीन अपने भाग्य को जरूर कोसती होगी। खेत-खलिहानों को तो इस कर्म के लिये आदमी अपना अधिकार समझते हैं। कभी कोई बस सड़क पर पहिया पंक्चर होने की वजह से रुक जाए तो सारे आदमी यहां-वहां अपना काम अधिकारपूर्वक कर लेते हैं। लज्जा के भाव की बात करना तो महामूर्खता है। वैसे भी उसने शताब्दियों पहले ही घोषणा कर दी थी कि लज्जा नारी का आभूषण है यानी कि पुरुष का उससे कोई लेना-देना नहीं है। कई बार तो लगता है कि आदमी ने तो पूरे देश की धरती को शौचालय ही समझ लिया है। धरती को मां कहने वाले और धरती के लिये अपनी जान तक देने वाले ने देश की पूरी धरती को ही पिशाबघर बना दिया है। जब उसे धरती मां की ही कोई चिन्ता नहीं है तो उन महिलाओं की तो क्या ही होगी जो आसपास से गुजर रही होती हैं। भृकुटियां तान कर कई पुरूष कहना चाहेंगे कि जरूरत पड़ने पर क्या किया जाए? क्या जरूरत पड़ने पर वे अपने घर की रसोई या शयनकक्ष में ऐसी क्रिया करते हैं? ऐसे क्षणों में वे सिर्फ प्रतीक्षा करते हैं। महिलाओं को जब शौचालय नहीं मिलते तो वे भी तो प्रतीक्षा ही करती हैं। आदमी इन्तजार करना कब सीखेगा या इन्तजार करवाने के लिये भी वह किसी कानून की बाट जोह रहा है?
एक बर की बात है अक लाल किले की दीवार के सहारे हल्का होण लाग रह्या था अर वो एक सिपाही नैं देख लिया। सिपाही उस धोरै जाकै लट्ठ खड़का कै बोल्या- शर्म नहीं आती लाल किले की दीवार खराब करते होए? ल्या काढ़ दस का नोट। नत्थू बेचारा पहल्ली बर दिल्ली गया था अर उसनैं अपने पजामे का नाला बांधकै झट दस का नोट कुर्ते की गोज मैं तैं काढ़कै दे दिया। थोड़ी देर बाद नत्थू नैं देख्या अक वो सिपाही एक रेहड़ी पै खड़्या समोसे खाण लाग रह्या था। नत्थू हिम्मत करके उस धोरै गया अर बूज्झण लाग्या- आं रै! जै मैं लाल किले की दीवार नहीं भिगोता तो तैं कित तैं समोसे खाता?
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